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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...11
लोकोत्तर द्रव्य आवश्यक- जो श्रमण संयम धर्म के मूलोत्तर गुणों से रहित हैं, छहकाय जीवों के प्रति अनुकम्पा हीन है, अश्व की भाँति चंचल है, हस्तिवत निरंकुश है, स्निग्ध पदार्थों के द्वारा अंग-प्रत्यंगों को कोमल बनाता है, बार-बार देह प्रक्षालन करता है, तेल आदि से केशों का संस्कार करता है, श्वेत-पीत वस्त्र पहनता है और तीर्थंकर पुरुषों के आज्ञा की उपेक्षा कर स्वच्छंद विचरण करता है, किन्तु उभय सन्ध्याओं में आवश्यक करने के लिए तत्पर रहता है उसकी वह क्रिया लोकोत्तर द्रव्य आवश्यक है। __ स्पष्ट है कि इस लोक में श्रेष्ठ साधुओं द्वारा आचरित एवं जिनप्रवचन में वर्णित होने से यह आवश्यक लोकोत्तर कहा जाता है, किन्तु श्रमण गुण से रहित द्रव्यलिंगी साधुओं द्वारा वह आवश्यक कर्म किये जाने से मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत न होने के कारण द्रव्य आवश्यक है। इस तरह की आवश्यक क्रिया में भाव शून्यता होने से सम्यक फल की प्राप्ति नहीं होती है।
इस द्रव्य आवश्यक में 'नो' शब्द एकदेश प्रतिषेध के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्रतिक्रमण क्रिया रूप एकदेश में आगम रूपता है साथ ही आवश्यक सूत्र के ज्ञान का सद्भाव होने से आगम की एकदेशता है। इस तरह क्रिया की दृष्टि से आगम का अभाव और ज्ञान की दृष्टि से आगम का सद्भाव होने से देशप्रतिषेध रूप नोआगम शब्द का व्यवहार हुआ है।45
__4. भाव आवश्यक- विवक्षित क्रिया से युक्त अर्थ को भाव कहते हैं। मलधारी टीका के उल्लेखानुसार यहाँ भाव शब्द विवक्षित क्रिया के अनुभव से युक्त साधु आदि के लिए प्रयुक्त हुआ है और उनका आवश्यक भाव आवश्यक है। जैसे ऐश्वर्य रूप इन्दन क्रिया के अनुभव से युक्त को भावत: इन्द्र कहा जाता है वैसे ही विवक्षित क्रिया के अनुभव रूप भाव की अपेक्षा जो आवश्यक किया जाता है, वह भाव आवश्यक है।46 अनुयोगद्वार में भाव आवश्यक दो प्रकार का कहा गया है- आगमत: और नोआगमतः।47
(i) आगमतः भाव आवश्यक- जो आवश्यक सूत्र का ज्ञाता है और उसमें उपयोग युक्त है, वह आगम भाव आवश्यक है।48 इसका स्पष्टार्थ यह है कि जो मुनि आवश्यक सूत्र का पूर्णत: ज्ञाता होने के साथ-साथ उसको करते समय उपयोग से भी युक्त हो उसकी क्रिया भाव आवश्यक है। आवश्यक के अर्थ के ज्ञान से युक्त उपयोग को भाव और उस भाव से युक्त आवश्यक क्रिया को आगमत: भाव आवश्यक कहते हैं।49