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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...9
अनुयोगद्वार में नोआगमतः द्रव्य आवश्यक तीन प्रकार का कहा गया है- (i) ज्ञशरीरद्रव्य आवश्यक (ii) भव्य शरीर द्रव्य आवश्यक (iii) ज्ञशरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य आवश्यक | 36
ज्ञशरीर द्रव्य आवश्यक - जिसने पहले आवश्यक शास्त्र का सविधि ज्ञान प्राप्त कर लिया था, किन्तु अब पर्यायान्तरित हो जाने से उसका वह निर्जीव शरीर आवश्यक सूत्र के ज्ञान से सर्वथा रहित हो चुका है, उस मृत शरीर में भूतकाल की अपेक्षा आवश्यक सूत्र का ज्ञान स्वीकार करना नोआगम ज्ञशरीर द्रव्य आवश्यक है। 37
यद्यपि मृत अवस्था में चेतना का अभाव होने से उस शरीर में द्रव्य आवश्यक घटित नहीं होता है तथापि भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा अतीव आवश्यक पर्याय के प्रति कारणता मानकर उसमें द्रव्य आवश्यकता मानी गई है। लोक व्यवहार में भी माना जाता है तथा जो सूत्रगत दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि पहले जिस घड़े में मधु या घृत भरा जाता था, किन्तु अब नहीं भरे जाने पर भी 'यह मधुकुंभ है, यह घृतकुंभ है' ऐसा कहा जाता है। इसी प्रकार निर्जीव शय्यादिगत शरीर भी भूतकालीन आवश्यक पर्याय का कारण रूप आधार होने से नोआगम की अपेक्षा द्रव्य आवश्यक है | 38
भव्य शरीर द्रव्य आवश्यक - जिस जीव ने गर्भकाल की अवधि पूर्णकर मनुष्य पर्याय की प्राप्ति के बाद भी इस पौद्गलिक शरीर से अर्हत उपदिष्ट आवश्यक सूत्र को अब (वर्तमान पर्याय) तक नहीं सीखा है, लेकिन भविष्य में इसका अध्येता बनेगा, इस अपेक्षा से उसमें आवश्यक सूत्र को स्वीकार करना नोआगम भव्य शरीर द्रव्य आवश्यक कहलाता है।
स्पष्ट है कि यह जीव जब तक आवश्यक आदि सूत्रों को सीख नहीं लेता, तब तक ही भव्य शरीर द्रव्य आवश्यक रूप कहलाता है। दूसरे, इस शरीर में वर्तमान की अपेक्षा आवश्यकसूत्र का अभाव होने से इसे नोआगम द्रव्य आवश्यक रूप कहा गया है। 39 इस भेद के स्पष्ट बोध के लिए यह समझ लेना भी आवश्यक है कि यद्यपि मनुष्य के वर्तमान शरीर में आवश्यक सूत्र के ज्ञान का अभाव है, लेकिन भूतकाल में सीखा था या भविष्य में सीखेगा। उसे 'भाविनि भूतवदुपचारः'- भावी में भी भूत की तरह उपचार होता है, के न्यायानुसार वह भविष्य में इसी पर्याय में आवश्यक सूत्र का ज्ञाता बनेगा, इस