________________
8... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
(i) आगमतः द्रव्य आवश्यक - जिसने सूत्र - पाठों को अच्छी तरह से अधिकृत कर लिया है, लेकिन उसके प्रयोगकाल में उपयोग शून्य है अर्थात प्रतिक्रमण आदि के सूत्र तो अच्छी तरह से कण्ठस्थ है, किन्तु उसके वाच्यार्थ के अनुरूप त्रियोग की क्रियान्विति नहीं है उसकी क्रिया आगमतः द्रव्य आवश्यक कहलाती है। 33
अनुयोगद्वार के अनुसार जिसने 'आवश्यक' इस पद के अर्थ को जानकर हृदय में स्थिर कर लिया है और पुनरावृत्ति के द्वारा धारण कर स्मृति रूप कर लिया है, मित- श्लोक, पद, वर्ण आदि के संख्या प्रमाण का भलीभाँति अभ्यास कर लिया है तथा आनुपूर्वी - अनानुपूर्वी पूर्वक सर्वात्मना धारण कर लिया है, नामसम- अपने नाम के समान स्मृति में धारण कर लिया है, घोषसम— उदात्तादि स्वरों के उच्चारण पूर्वक कण्ठस्थ कर लिया है, प्रतिपूर्ण - जिसने अक्षरों और अर्थ की अपेक्षा से मूल पाठ का अन्यूनाधिक अभ्यास कर लिया है, कंठोष्ठविप्रमुक्त- स्वरोत्पादक कंठादि के माध्यम से उसका स्पष्ट उच्चारण करना सीख लिया है, गुरु मुख से वाचनापूर्वक आवश्यक सूत्र को ग्रहण किया है जिससे वह उस शास्त्र की वाचना, पृच्छना, परावर्त्तना, धर्मकथा करने में भी दक्ष हो गया है किन्तु अनुप्रेक्षा (उपयोग) से रहित (उसे उच्चरित करते हुए चेतना सजग न) हो तो वह आगमतः द्रव्य आवश्यक है।
'अनुपयोगो द्रव्यं' इसश्र शास्त्र वचन के अनुसार भी जिसकी आवश्यक क्रिया तद्रूप उपयोग से रहित है उसे आगमतः द्रव्य आवश्यक कहते हैं। यदि पूर्वोक्त गुण सम्पन्न साधक के द्वारा उपयोग (अनुप्रेक्षा) पूर्वक आवश्यक क्रिया की जाए तो वह भाव आवश्यक कहलाता है। 34
इस वर्णन से यह निर्विवादतः सिद्ध हो जाता है कि यदि शास्त्र पारंगत मुनि भी उपयोग शून्य हो तो उसका श्रुत द्रव्य श्रुत और उसकी क्रिया द्रव्य आवश्यक रूप ही है।
(ii) नोआगमतः द्रव्य आवश्यक - जिस व्यक्ति में ज्ञान का अभाव है, किन्तु क्रिया की अपेक्षा पूर्णता है वह आवश्यक आदि सूत्रों से सर्वथा अनभिज्ञ होते हुए भी उसके द्वारा विधिपूर्वक आवर्त्तादि क्रियाएँ करना नो आगम द्रव्य आवश्यक कहलाता है। 35