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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...7
2. स्थापना आवश्यक - काष्ठाकृति, चित्राकृति, लेप्याकृति में अथवा गूंथकर, वेष्टित कर, भरकर या निर्मित पुतली में अथवा अक्ष या कौड़ी में एक या अनेक बार सद्भाव स्थापना ( यथार्थ आकृति) अथवा असद्भाव स्थापना (काल्पनिक आरोपण) के द्वारा आवश्यक का जो रूपांकन या कल्पना की जाती है, वह स्थापना आवश्यक है। 27
इस आवश्यक का स्पष्टीकरण करते हुए बताया गया है कि 'अमुक यह है' इस अभिप्राय से जो स्थापना की जाती है वह मात्र स्थापना है तथा काष्ठ आदि में आवश्यकवान श्रावक आदि रूप जो स्थापना की जाती है वह स्थापना आवश्यक है अथवा भाव आवश्यक से रहित वस्तु में भाव आवश्यक के अभिप्राय से स्थापना करना, स्थापना आवश्यक है। 28
यह स्थापना तदाकार और अतदाकार दो प्रकार की होती है। स्वरूपतः नाम और स्थापना आवश्यक में कोई अन्तर नहीं है जैसे- भाव आवश्यक से शून्य वस्तु में नाम निक्षेप किया जाता है उसी प्रकार भाव से शून्य वस्तु में तदाकार या अतदाकार स्थापना भी की जाती है । अतएव भाव शून्यता की अपेक्षा दोनों में समानता है, परन्तु काल मर्यादा की अपेक्षा दोनों पृथक्-पृथक् हैं। नाम अपने द्रव्य के आश्रित होने से व्यक्ति के अस्तित्व काल तक रहता है अतः यावत्कथिक है जबकि स्थापना अल्प काल के लिए और यावत्कथिक दोनों तरह की होती है। 29
यहाँ ज्ञातव्य है कि नाम और स्थापना आवश्यक व्यवहार्य होने से इसके भेद-प्रभेद नहीं दिखलाये गये हैं।
3. द्रव्य आवश्यक - चैतन्य केन्द्र को एकाग्र किये बिना, केवल अन्य मनस्क भाव से सूत्र-पाठों का उच्चारण करना द्रव्य आवश्यक है। इस आवश्यक में साधक की स्थिति उपयोग शून्य होने से उसके द्वारा विशुद्ध रूप से उच्चरित सूत्र पाठ भी द्रव्यश्रुत कहलाता है तथा सर्व क्रिया द्रव्य क्रिया कहलाती है। 30
इसी प्रकार जो आवश्यक के स्वरूप का अनुभव कर चुका है अथवा भविष्य में अनुभव करेगा, किन्तु वर्तमान में आवश्यक के उपयोग से शून्य है, उस साधु का शरीर आदि भी द्रव्य - आवश्यक कहे जाते हैं । 31
अनुयोगद्वार में द्रव्य आवश्यक के दो प्रकार बतलाये गये हैं1. आगमतः- ज्ञान की अपेक्षा से और 2. नोआगमतः- ज्ञानरहित क्रिया की अपेक्षा से 132