________________
आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...3
• मूलाचार एवं नियमसार के उल्लेखानुसार जो राग-द्वेष रूप कषाय के वशीभूत न हो वह अवश है, उस अवश के द्वारा किया गया आचरण आवश्यक है। वह (कर्म मुक्त होने की ) युक्ति है, वह शाश्वत स्थान को प्राप्त करने का उपाय है, उससे जीव निरवयव (सिद्ध) होता है। 14
उक्त परिभाषा का गूढ़ार्थ यह है कि जो योगी आत्मा के ज्ञान आदि परिग्रह के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश में नहीं होता वह अवश कहा जाता है, उस अवश योगी को निश्चय धर्म ध्यान स्वरूप आवश्यक कर्म अवश्य होता है। इस प्रकार आवश्यक कर्म सिद्धावस्था को समुपलब्ध करने का प्रत्यक्ष कारण है।
• जीवन में अनेक आवश्यक कर्म हैं- किन्तु यहाँ आवश्यक से अभिप्रेत लौकिक क्रिया नहीं, अपितु लोकोत्तर क्रिया है । आवश्यक सूत्र में निर्दिष्ट प्रकारों से यह परिलक्षित होता है कि यह क्रिया आध्यात्मिक क्रिया है। आवश्यक सूत्र में वर्णित सामग्री नामकरण की सार्थकता को सिद्ध करती हैं।
• अर्थ विश्लेषण की दृष्टि से प्राकृत भाषा के 'आवस्सय' शब्द के संस्कृत भाषा में अनेक रूप बनते हैं। जैसे- आवश्यक, आपाश्रय और आवासक। इनमें से आवश्यक शब्द सर्वाधिक प्रचलित एवं व्यवहृत है। आवश्यक शब्द का पद विश्लेषण करने पर यह अर्थ स्पष्ट होता है- 'आ' भली प्रकार 'वश्यक' वश किया जाये अर्थात ज्ञानादि गुणों के लिए इन्द्रिय एवं क्रोध आदि कषाय रूप भावशत्रु जिसके द्वारा ( वश्य) वश में किया जायें अथवा पराजित किये जायें वह आवश्यक है। इस निर्वचन का तात्पर्य आत्मगुणों की अभिवृद्धि एवं आत्मा अवगुणों का ह्रास होना है।
अनगारधर्मामृत के अनुसार जो इन्द्रियों के वश्य - आधीन नहीं होता उसे अवश्य कहते हैं, ऐसे साधकों के द्वारा अहोरात्रि में करने योग्य सत्कर्मों का नाम ही आवश्यक है। 15
आवश्यक के पर्याय
अनुयोगद्वार सूत्र में आवश्यक के आठ पर्यायवाची नाम मिलते हैं1. आवश्यक 2. अवश्यकरणीय 3. ध्रुवनिग्रह 4. विशोधि 5 अध्ययनषट्क वर्ग 6. न्याय 7. आराधना और 8. मार्ग। ये पर्याय एकार्थक न होकर आवश्यक के विविध गुणों को प्रकट करते हैं। 16 इनका सामान्य स्वरूप निम्नोक्त हैंअवश्य करने योग्य कार्य को आवश्यक कहते हैं। सामायिक आदि की साधना श्रमण एवं गृहस्थ दोनों के द्वारा निश्चित रूप से
1. आवश्यक
1