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2...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
आवश्यक का सामान्य अर्थ अवश्य करणीय नित्यकर्म या धर्मानुष्ठान है। भगवती आराधना टीका में आवश्यक का व्युत्पत्ति अर्थ करते हुए कहा गया हैअवश अर्थात जिनको करना या न करना हमारी स्वेच्छा पर निर्भर नहीं हो ऐसे कर्म आवश्यक हैं। आवश्यक का तात्पर्य सामायिकादि छः अवश्य करणीय अनुष्ठान से है।
_ आवासक का व्युत्पत्तिपरक अर्थ करते हुए कहा गया है कि जो आत्मा में रत्नत्रय का आवास कराते हैं वे आवासक-आवश्यक हैं। सुस्पष्ट है कि सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान- ये छः प्रकार के कर्म आत्मा में रत्नत्रय का आवास कराते हैं अत: आवश्यक है। आवश्यक की गीतार्थ विहित परिभाषाएँ
जैन साहित्य में आवश्यक नाम की विभिन्न परिभाषाएँ उल्लिखित हैंनन्दी टीका में आवश्यक का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि अवश्य करणीय सामायिक आदि क्रियानुष्ठान आवश्यक है। इन अनुष्ठानों का प्रतिपादक शास्त्र भी आवश्यक कहलाता है।
• विशेषावश्यक टीका के अनुसार जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र- इन तीनों का साधक है और प्रतिनियत काल में अनुष्ठेय है, वह आवश्यक है। मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना से लेकर दिन-रात में करणीय चक्रवाल सामाचारी की समस्त क्रियाएँ आवश्यक कहलाती है।
• अनुयोगद्वार चूर्णि में आवश्यक की परिभाषा बताते हुए कहा गया है कि जो गुण शून्य आत्मा को प्रशस्त भावों से आवासित करता है, वह आवासक आवश्यक है।
• अनुयोगद्वार टीका में लिखा गया है कि जो समस्त गुणों का निवास स्थान है वह आवासक या आवश्यक है।10 अनुयोगद्वार में आवश्यक की निम्न व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई है
आत्मा को दुर्गुणों से हटाकर सर्व प्रकार से गुणों के वश्य (अधीन) करे वह आवश्यक है।11
जिसके द्वारा इन्द्रिय और कषाय आदि भाव शत्रु सर्व प्रकार से वश में किए जाते हैं, वह आवश्यक है।12
जो गुणशून्य आत्मा को गुणों के द्वारा पूर्णत: वासित करता है, वह आवश्यक है।13