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अध्याय-1
आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद
आवश्यक जैन धर्म की एक महत्त्वपूर्ण क्रिया है। इस क्रिया के नाम से ही इसके अर्थ का सहज बोध हो जाता है। यह क्रिया साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ के लिए उभय सन्ध्याओं में अवश्य करने योग्य होने से इसका आवश्यक नाम पूर्णत: सार्थक है। वर्तमान में यह क्रिया प्रतिक्रमण के नाम से सुप्रसिद्ध है।
सामान्यतः अनादिकालीन दुष्कर्मों का क्षय, नवीन कर्मों का संवर और मैत्री आदि सद्गुणों का उत्कर्ष करने के लिए यह एक आध्यात्मिक अनुष्ठान है। इसके द्वारा जीवन शुद्धि या दोषों का अपनयन ही नहीं होता अपितु परम्परा से स्व-स्वरूप की उपलब्धि भी होती है। आवश्यक शब्द का अर्थ विमर्श
जो अवश्य करने योग्य हो, वह आवश्यक है। आवश्यक शब्द में 'आङ् उपसर्ग एवं ‘वस्' धातु का संयोग है। आङ् उपसर्ग मर्यादावाची है और 'वस्' धातु आश्रयवाची है। आवश्यक का एक नाम आपाश्रय (आधार) भी है। इस निरूक्ति के अनुसार जो मर्यादापूर्वक अथवा सम्यक विधिपूर्वक गुणों के आश्रयभूत है वह आपाश्रय अर्थात आवश्यक है।3।।
विशेषावश्यक भाष्य की टीका में 'आवस्सय' शब्द के चार संस्कृत रूप प्राप्त होते हैं। उनका निर्वचन इस प्रकार है
1. आवश्यक- जो श्रमणों और श्रावकों के लिए दोनों संध्याओं में अवश्य करणीय है।
2. आपाश्रय- जो गुणों का आधार है।
3. आवश्य- जो व्यक्ति को ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के अधीन बनाता है यानी जीवन में इन गुणों का सृजन करता है।
4. आवासक- जो आत्मा को गुणों से वासित करता है वह आवासक अर्थात आवश्यक है।