________________
षड़ावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में ...xivil
करता है। यथार्थ में ऋजुता, लाघवता, सरलता आदि आत्मगुणों का जागरण ही शुद्ध स्वरूप प्राप्ति का मुख्य सोपान है।
चौथा प्रतिक्रमण आवश्यक स्वकृत पापों का स्मरण कर उनसे पीछे हटने की क्रिया है। जब साधक में समभाव दशा विकसित होती है तब विनय, सरलता आदि गुणों में रमण करते हुए वह शारीरिक राग से हटकर आत्मरागी बनता है और स्व दोषों को परिष्कृत करते हुए आत्म स्वरूप में निखार लाता है।
पांचवाँ कायोत्सर्ग आवश्यक स्वदेह के प्रति रहे ममत्व एवं आसक्ति को न्यून करने में सहायक बनता है। इस आवश्यक क्रिया के द्वारा व्यक्ति आत्म साधना में लीन होकर बाह्य जगत से अन्तर जगत की ओर अभिमुख होने की कला विकसित करता है।
इस तरह दोष रूपी शल्य एवं विजातीय तत्त्वों के निकलने और आत्म रमणता बढ़ने से मनो जगत की भूमिका सद्गुणों के सिंचन के लिए उपजाऊ एवं पोली बन जाती है और तब छठवाँ प्रत्याख्यान रूपी बाँध लगाकर आत्मा को पुन: उन्हीं दोषों के द्वारा मलिन होने से बचाया जा सकता है। इस प्रकार निवृत्ति मार्ग पर बढ़ने में प्रत्याख्यान Mile stone की भाँति सहायक बनता है। ___ संक्षेप में कहें तो षडावश्यक की साधना व्यक्ति में सद्गुणों का सृजन करते हुए आत्मानंदी जीवन जीने का मार्ग बताती है। हमारे पूर्वाचार्यों ने इस आवश्यक क्रिया के सम्बन्ध में कई नियुक्तियाँ, चूर्णि एवं भाष्य आदि लिखे हैं जो इसकी महत्ता को सूचित करते हैं। ___ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी यदि चिंतन किया जाए तो आज के भोगवादी, विलास युक्त, अतृप्त लालसा एवं तृष्णामय युग में षडावश्यक सुख-शांति एवं संतोषपूर्ण जीवन प्रदान कर सकता है। साथ ही प्रतिस्पर्धात्मक एवं भाग दौड़ की Life में यह आत्मिक शान्ति भी प्रदान करता है।
जैन मान्यता में साधु एवं गृहस्थ वर्ग के लिए इस धर्मक्रिया को उभय संध्याओं की नित्य क्रिया के रूप में स्वीकारा गया है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में इसके विविध पक्ष निम्न सात अध्यायों में विभाजित है
प्रथम अध्याय में आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद-प्रभेदों का शास्त्रीय निरूपण करते हुए तत्सम्बन्धी अन्य अनेक विषयों को उद्घाटित किया गया है।
द्वितीय अध्याय में सामायिक का विस्तृत प्रतिपादन करते हुए तद्विषयक