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xlviii... षड़ावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
कई मुख्य घटकों एवं रहस्यों को उजागर किया गया है।
तृतीय अध्याय चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति से सम्बन्धित है। इसमें चतुर्विंशतिस्तव का प्रतीकात्मक अर्थ, तीर्थंकर परमात्मा की स्तुति आवश्यक रूप क्यों? चतुर्विंशतिस्तव में छह आवश्यकों का समावेश कैसे ? इस तरह के अनछुए विषयों का तात्त्विक विवेचन किया गया है। चतुर्थ अध्याय में वन्दन आवश्यक का मौलिक चिन्तन प्रस्तुत करते हु वन्दन योग्य कौन ? वन्दन कब ? वन्दन कितनी बार ? वन्दन आवश्यक रूप क्यों ? ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का भी निरूपण किया है।
पाँचवें अध्याय में प्रतिक्रमण आवश्यक की सामान्य विवेचना ही की गई है क्योंकि विस्तार भय से यह वर्णन खण्ड- 12 में स्वतन्त्र रूप से किया गया है। छठवें अध्याय में कायोत्सर्ग आवश्यकं का मनोवैज्ञानिक अनुसंधान करते हुए कायोत्सर्ग की तुलना प्रत्याहार, हठयोग, श्वासोश्वास, कायगुप्ति, ध्यान, विपश्यना, प्रेक्षाध्यान आदि से की गई है।
सातवाँ अध्याय प्रत्याख्यान के व्यावहारिक एवं पारमार्थिक पहलुओं को प्रस्तुत करता है। इसमें मुख्य रूप से प्रत्याख्यान में कितने आगार (छूट) रखे जा सकते हैं? प्रत्याख्यान शोधि-अशोधि के कितने स्थान है ? प्रत्याख्यान और प्रतिक्रमण का परस्पर क्या सम्बन्ध है ? वर्तमान सन्दर्भ में प्रत्याख्यान कितना प्रासंगिक है ? इस तरह के कई तथ्यों को शास्त्रीय प्रमाण से विश्लेषित किया गया है।
प्रस्तुत शोध की मुख्य विशेषता यह भी है कि इस कृति में षडावश्यक के समग्र मुद्दों पर विचार किया गया है तथा प्रत्येक अध्याय का अन्तिम चरण उपसंहार एवं समीक्षात्मक अध्ययन के रूप में प्रस्तुत किया है।
चतुर्विध संघ के लिए षडावश्यक एक मुख्य क्रिया है। इसकी सम्यक् साधना भव्य जीवों को मुक्ति मार्ग पर प्रयाण करवा सकती है। वर्तमान में इस महत्त्वपूर्ण क्रिया के प्रति बढ़ते उपेक्षा भाव एवं इसकी महत्ता और आवश्यकता के प्रति अज्ञेयता में यह कृति एक सर्च लाईट के समान पथ प्रकाशक बने तथा भौतिकता एवं भोगवाद में जकड़ रहे मानव समाज को मानवता एवं अध्यात्म के मार्ग पर बढ़ा सके इन्हीं भावों के साथ।