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अनुभूति का वादन जैसे हिन्दुओं के लिए संध्या, मुसलमानों के लिए नमाज और योगियों के लिए प्राणायाम आवश्यक है वैसे ही जैन धर्मानुयायियों के लिए षडावश्यक की साधना अपेक्षित है। यह इतनी विराट है कि इसमें यम-नियम अथवा ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग जैसे साधना के सभी आयाम समाविष्ट हो जाते हैं। ये मुख्य रूप से आत्म विशुद्धि के क्रमिक चरण हैं। इसके अन्तर्गत जिन छ: क्रियाओं का समावेश होता है वे सफल आध्यात्मिक जीवन के लिए परमावश्यक है। इसकी प्रत्येक क्रिया साधक में समत्व गुण का विकास, विभाव दशा का निकास एवं सद्गुणों का आवास करती है।
प्रथम आवश्यक के रूप में सामायिक आवश्यक की चर्चा है। श्रमणों के लिए सामायिक जहाँ प्रथम चारित्र है तो गृहस्थ साधकों के चार शिक्षाव्रतों में प्रथम शिक्षाव्रत है। समत्ववृत्ति की यह साधना प्रत्येक वर्ग, जाति एवं धर्म के लिए स्वीकार्य है। किसी व्यक्ति, धर्म या वेशभूषा से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। भगवतीसूत्र में कहा गया है कि कोई भी मनुष्य चाहे गृहस्थ हो या श्रमण, धनिक हो या निर्धन समभाव की आराधना कर सकता है। वस्तुत: जो समभाव की साधना करता है वही जैन है फिर चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति या संप्रदाय से हो। सामायिक साधना का लक्ष्य मात्र द्रव्य से 48 मिनट तक एक स्थान पर बैठना नहीं, अपितु भावों को बाह्य प्रपंचों से हटाकर स्वयं में स्थिर करना है।
दूसरे आवश्यक के रूप में चतुर्विंशतिस्तव का वर्णन किया गया है। अरिहंत परमात्मा का नाम स्मरण ही साधक में परमात्म गुणों का प्रकटन कर देता है। यह आवश्यक न केवल तीर्थंकर परमात्मा की स्तवना से सम्बन्धित है अपितु स्वयं में तीर्थंकरत्व को जागृत करने की अपूर्व विधि है। इस पंचम आरे में परमात्म भक्ति को ही मोक्ष का परम आधार माना गया है। इस आवश्यक की साधना का लक्ष्य समत्व गुण से अभिसिंचित आत्मभूमि में परम पद रूपी वृक्ष का बीजारोपण है।
वंदन आवश्यक लघुता गुण को प्रकट करते हुए गुरु के प्रति विनय एवं समर्पण भाव जागृत करता है तथा अहंकार का मर्दन कर ऋजु भाव उत्पन्न