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380... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
पकवान्न सम्बन्धी— तली हुई विकृति के पाँच निवियाता निम्नानुसार है1. कड़ाही में डाला हुआ घी अथवा तेल अच्छी तरह डूब जाये इतना बड़ा मालपूआ पहली बार निकालने पर मिठाई कहलाता है उसके बाद जितने भी मालपूए निकाले जाए, वे सभी निवियाता रूप कहलाते हैं।
2. किसी कड़ाही में तीन बार बहुत सारी छोटी-छोटी पूरिया तल दी गई हो अर्थात तलकर निकाल दी गई हो, उस बीच में नया घी या तेल न डाला हो, तो उसी में ही चौथी बार की तली हुई वस्तु निवियाता के अन्तर्गत गिनी जाती है।
3. गुड़ आदि की चासनी बनाकर उसमें खील लावा (फूलियाँ) आदि डालकर बनाये गये लड्डू आदि ।
4. सुंवाली आदि मिठाई तलने के बाद उस चिकनी कड़ाही में पानी और आटा डालकर एवं सेककर बनाई हुई लापसी, हलवा आदि।
5. तवा, कड़ाही आदि में घी - तेल से चुपड़कर बनाई हुई पूरी आदि। 114
इस प्रकार छः विगय के कुल तीस निवियाता होते हैं शेष चार महाविगय अभक्ष्य होने से सर्वथा वर्जित है। बिना किसी अगाढ़ कारण के उपरोक्त निवियता का भी उपयोग नहीं करना चाहिए।
प्रत्याख्यान की आवश्यकता क्यों?
श्रमण संस्कृति का मूल आधार काम भोगों के प्रति अनासक्ति है। जो व्यक्ति काम भोगों, पंचेन्द्रिय विषयों में प्रलुब्ध हो जाता है, विषय-वासना के क्षणिक सुखों के पीछे छिपे हुए महादुःखों का विचार नहीं करता, वह मनुष्य जन्म खो देता है। वस्तुतः मनुष्य भव रूपी मूलधन के साथ-साथ सत्पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त हो सकने वाले लाभ से भी वंचित हो जाता है तथा अज्ञान एवं मोह के आधीन होकर हिंसादि पापकर्म करता हुआ नरक और तिर्यञ्च गति को उपलब्ध करता है। अतः समझना होगा कि आसक्ति ही सब दुःखों का मूल कारण है। जब तक आसक्ति है तब तक किसी भी प्रकार की आत्म शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती है। प्रत्याख्यान आसक्ति को दूर करने का अमोघ उपाय है। प्रत्याख्यान के द्वारा तृष्णा, आकांक्षा, लिप्सा, लोभवृत्ति आदि कुसंस्कारों पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
इस कथन की पुष्टि करते हुए नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी ने कहा हैप्रत्याख्यान करने से संयम होता है, संयम से आश्रव का निरोध होता है, कर्म