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________________ प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ...381 आगमन के द्वार बन्द हो जाते हैं और आश्रव निरोध से तृष्णा का उच्छेद होता है। तृष्णा का छेदन होने से अनुपम उपशम भाव प्रकट होता है और अनुपम उपशम भाव से प्रत्याख्यान शुद्ध होता है। शुद्ध प्रत्याख्यान से चारित्र धर्म के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है यानि चारित्र धर्म की प्राप्ति होती है, चारित्र धर्म के आचरण से कर्मों की निर्जरा होती हैं और उससे आठवें गुणस्थान रूप अपूर्वकरण प्रकट होता है। अपूर्वकरण से केवलज्ञान और केवलज्ञान से मोक्षपद की प्राप्ति होती है। इस तरह प्रत्याख्यान वासना एवं तृष्णाजन्य वृत्तियों का क्रमशः नाश करता हुआ परम्परा से मोक्ष फल प्रदान करता है । 115 प्रत्याख्यान की आवश्यकता को दर्शाने वाला दूसरा तथ्य है कि यह विश्व अत्यन्त विराट् एवं व्यापक है। इस विश्व में अनन्त पदार्थ हैं, जिनकी परिगणना करना ही नहीं, अपितु एक व्यक्ति के द्वारा उन समस्त पदार्थों का उपभोग करना, यह भी कभी सम्भव नहीं है । कदाच् किसी की उम्र लम्बी भी हो, फिर भी अकेला व्यक्ति संसार की सभी वस्तुओं का परिभोग नहीं कर सकता। मानव इच्छा असीम हैं। वह सृष्टिजन्य सर्व वस्तुओं को पाना - संग्रहित करना चाहता है। चक्रवर्ती के समान षट्खण्ड का आधिपत्य एवं अनगिनत सम्पदा भी प्राप्त हो जाए, तो भी इच्छाओं का अन्त नहीं आ सकता । ज्ञानी पुरुषों ने इच्छा को आकाश की उपमा देते हुए कहा है- जैसे आकाश का कोई ओर-छोर नहीं होता, वैसे ही इच्छा का कोई आर-पार नहीं होता। इसकी स्थिति इतनी अजीब है कि एक इच्छा की पूर्ति होने पर दस इच्छाएँ नई उत्पन्न हो जाती है और उन इच्छाओं की सम्पूर्ति के लिए मानव मन सदैव अशान्त बना रहता है । इस अशान्त मन और कलुषित वृत्ति से निवृत्त होने का एकमात्र उपाय प्रत्याख्यान है । प्रत्याख्यान की अनिवार्यता इस बात से भी सिद्ध होती है कि सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग - इन पाँच अंगों के द्वारा आत्मशुद्धि की जाती है किन्तु आसक्ति रूपी पापकर्म पुनः प्रविष्ट न हो, उसके लिए प्रत्याख्यान अत्यन्त आवश्यक है। जैसे मलिन वस्त्र को स्वच्छ कर लेने के बाद वह पुनः गन्दा न हो जाए, इसके लिए उस वस्त्र को कपाट आदि में रखते हैं इसी भाँति प्रतिक्रमण आदि के द्वारा पाप मुक्त हुआ मन पुनः मलिन न हो जाए, इसलिए प्रत्याख्यान किया जाता है।
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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