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प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ...363
के चारों प्रकारों का त्याग (प्रत्याख्यान ) इक्कीस प्रकार से किया जा सकता है। इन प्रत्याख्यानों के ग्रहण पाठ अलग-अलग नहीं है, अपितु मुख्य पाँच आलापक हैं अतः इक्कीस में से किसी भी प्रत्याख्यान को उच्चरित ( ग्रहण) करते समय मुख्य रूप से पाँच आलापकों (प्रतिज्ञा पाठों) का उपयोग होता है, वे पाँच प्रतिज्ञा पाठ ही पाँच उच्चारस्थान कहे जाते हैं।
दूसरी परिभाषा के अनुसार एकाशन आदि बड़े पच्चक्खाणों के अन्तर्गत उपविभाग के रूप में पृथक्-पृथक् पाँच प्रकार के प्रत्याख्यान उच्चारित करवाये जाते हैं, वे पाँच स्थान कहलाते हैं और उन पाँच प्रत्याख्यानों के भिन्न-भिन्न आलापक (प्रतिज्ञा पाठ) पाँच प्रकार के उच्चारस्थान कहलाते हैं। उदाहरणार्थएकासन के प्रत्याख्यान में सर्वप्रथम 'नमुक्कारसहिय पोरिसी' आदि एक अद्धा प्रत्याख्यान और ‘मुट्ठीसहियं' आदि एक संकेत प्रत्याख्यान उच्चारित करवाया जाता है- इन दोनों का प्रथम उच्चार स्थान गिना जाता है। उसके पश्चात विगय (विकृति) त्याग का प्रत्याख्यान करवाया जाता है, यह दूसरा उच्चारस्थान है। उसके बाद एकाशन का प्रतिज्ञा पाठ उच्चारित करवाया जाता है, यह तीसरा उच्चारस्थान है। तदनन्तर पाण- आहार का प्रतिज्ञा पाठ उच्चारित करवाया जाता है, यह चौथा उच्चारस्थान है। इस प्रकार चार प्रत्याख्यान के चार आलापक प्रात:काल में एक साथ उच्चारित किये जाते हैं तथा प्रातः और सन्ध्या को देशावगासिक अथवा सन्ध्या को दिवसचरिम या पाणहार का प्रत्याख्यान उच्चारित करवाया जाता है, यह पाँचवाँ उच्चारस्थान है। इस तरह एक एकासन प्रत्याख्यान में पाँच पेटा प्रत्याख्यान पाँच स्थान कहे जाते हैं और उन पाँच प्रत्याख्यानों के पाँच प्रतिज्ञा पाठों को पाँच उच्चारस्थान कहा जाता है। प्रत्येक उच्चारस्थान के अलग-अलग भेद हैं।
भक्तार्थी की अपेक्षा
प्रथम उच्चारस्थान तेरह भेदवाला कहा गया है - नवकारसी, पौरूषी, साढपौरूषी,पुरिमड्ड, अवड्ड और अंगुष्ठसहित आदि आठ सांकेतिक - कुल 13 प्रकार ( उच्चार भेद) हैं।
द्वितीय उच्चारस्थान में नीवि, विगय और आयंबिल - इन तीन प्रत्याख्यानों के आलापक उच्चरित करवाए जाते हैं।