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362...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
'पोरिसिं पच्चक्खामि उग्गए सूरे' अथवा 'उग्गए सूरे पोरिसिअं पच्चक्खामि'- यह दूसरी उच्चारविधि है।
'सूरे उग्गए पुरिमड्डे पच्चक्खामि'- यह तीसरी उच्चारविधि है। 'सूरे उग्गए अभत्तटुं पच्चक्खामि'- यह चौथी उच्चारविधि है।
पहली उच्चारविधि नवकारसी सम्बन्धी, दूसरी पौरुषी-साढपौरुषी सम्बन्धी, तीसरी पुरिमड्ड-अवड्ड सम्बन्धी और चौथी उपवास सम्बन्धी है। ..
ऊपर वर्णित उच्चारविधि के अन्तर्गत प्रारम्भिक दो उच्चारविधि में 'उग्गएसूरे' पाठ है। इसका परम्परागत अभिप्राय यह है कि सूर्योदय से पूर्व गृहीत प्रत्याख्यान ही शुद्ध गिना जाता है। अन्तिम दो उच्चारविधि में 'सूरे उग्गए' पाठ है। इसका तात्पर्य यह है कि सूर्योदय के अनन्तर भी प्रत्याख्यान का संकल्प एवं उसे ग्रहण कर सकते हैं। इस प्रकार 'उग्गए सूरे' और 'सूरे उग्गए' ये दोनों पाठ ‘सूर्योदय से प्रारम्भ कर' इस अर्थ में समान होने पर भी क्रियाविधि में अन्तर होने से- उक्त दोनों पाठों का भेद सार्थक हेतु वाला है।82
द्वितीय प्रकार- प्रत्याख्यान पाठ में गुरु-शिष्य के वचन रूप में भी चार प्रकार की उच्चार विधि होती है- प्रत्याख्यान पाठ उच्चरित करते समय गुरु 'पच्चक्खाइ' कहे, तब शिष्य ‘पच्चक्खामि' ऐसा कहे। इसी तरह गुरु 'वोसिरइ' कहे, तब शिष्य ‘वोसिरामि' कहे। यहाँ प्रसंगवश यह ज्ञात कर लेना आवश्यक है कि प्रत्याख्यान ग्रहण करते हुए प्रत्याख्यानी का उपयोग ही प्रमाणभूत है। यदि प्रत्याख्यान पाठ उच्चरित करवाते समय अक्षर स्खलित हो जाए तो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है। उदाहरणार्थ चउविहार उपवास का प्रत्याख्यान लेते समय पाठ में 'तिविहार उपवास' बोल दिया जाए अथवा 'तिविहार उपवास' का प्रत्याख्यान लेते समय पाठ में 'चउविहार उपवास' बोल दिया जाए अथवा एकासन के स्थान पर बियासन और बियासन के स्थान पर एकासन का पाठ भूलवश बोल दिया जाए तदुपरान्त भी प्रत्याख्यानी के द्वारा जिस प्रत्याख्यान का संकल्प किया गया है वही प्रमाणभूत होता है, शब्द स्खलना से प्रत्याख्यान में फेरफार नहीं होता है।83 प्रत्याख्यान के उच्चारस्थान
उच्चारस्थान का शब्दानुसारी अर्थ उच्चारण करने योग्य या उच्चरने योग्य स्थान है। प्रस्तुत सन्दर्भ में उक्त अर्थ ही ग्राह्य है। पूर्व वर्णन के अनुसार आहार