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________________ प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन ...349 के द्वारा छाछ का बिलौना करते समय मुख में उसके छींटे चले जाना अथवा वर्षा ऋतु में विवेक रखने के उपरान्त भी पानी की बूंदे मुख में चली जाना, सहसाकार कहलाता है। अनाभोग और सहसाकार- इन दोनों आगारों के सम्बन्ध में यह विशेष है कि जब तक पता न चले, तब तक व्रत भंग नहीं होता। परन्तु ज्ञात हो जाने के पश्चात मुख में लिए हुए ग्रास को थूके नहीं और चबाते रहें तो व्रत भंग हो जाता है। आवश्यक चूर्णिकार के अनुसार नवकारसी आदि प्रत्याख्यानों को नमस्कारमन्त्र का स्मरण करके पूर्ण करना चाहिए। कदाच विस्मृति वश नमस्कारमन्त्र का उच्चारण किए बिना ही मुंह में कवल ले लिया जाए और याद आते ही उसे मुंह से निकाल दिया जाए तो प्रत्याख्यान भंग नहीं होता है।65 3. प्रच्छन्नकाल- प्रच्छन्न - छुपा हुआ, काल - समय अर्थात बादल अथवा आंधी आदि के कारण सूर्य के ढक जाने से, काल का स्पष्ट पता न चले और उस अनुमान से 'पौरुषी आदि का समय पूर्ण हुआ जानकर भ्रान्ति से आहार आदि कर लेना, प्रच्छन्नकाल कहलाता है। इस आगार का अभिप्राय है कि मेघ आदि के कारण निश्चित समय की जानकारी न हो पाए और समय से पूर्व ही प्रत्याख्यान पूर्ण कर लिया जाए तो दोष नहीं लगता है। 4. दिशामोह- दिशा - अवकाश (आकाश) को दिखाने वाली, मोह - भ्रम, विपरीत आभास। दिशा का विपरीत आभास होने से, जैसे पूर्व को पश्चिम समझकर प्रत्याख्यान का काल पूर्ण न होने पर भी सूर्य के ऊँचा चढ़ आने की भ्रान्ति से पूर्ण हुआ जानकर अशनादि का सेवन कर लेना, दिशामोह है। 5. साधुवचन- साधु सामाचारी के अनुसार मुनिजन 'उग्घाड़ा पोरिसी' इस शब्द का उच्चारण करते हैं। अत: मुनियों के द्वारा 'उग्घाडा पौरुषी' का वचन सुनकर 'प्रत्याख्यान काल पूर्ण हुआ' ऐसा आभास होना और अपूर्ण काल में प्रत्याख्यान पूर्ण कर लेना, साधुवचन आगार है। उल्लेख्य है कि पौरुषी प्रत्याख्यान का काल सूर्योदय के अनुसार भिन्नभिन्न अनियत परिमाण वाला होता है, जबकि सूत्र पौरुषी (पादोन पौरूषी) का काल सदैव सूर्योदय से छः घड़ी का नियत होता है। इसलिए 'उग्घाड़ा पौरुषी'
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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