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320...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में ___पंचाशकप्रकरण में प्रत्याख्यान, नियम और चारित्र धर्म- इन तीन शब्दों को एकार्थवाची कहा गया है।15 धवला टीकाकार ने प्रत्याख्यान, संयम और महाव्रत- इन तीन पदों को नामान्तर कहा है।16 स्पष्ट है कि त्याग रूप प्रवृत्ति करना अथवा बंधन रूप चेष्टाओं का परिहार करना प्रत्याख्यान है।
अनुयोगद्वारसूत्र में प्रत्याख्यान को 'गुणधारण' कहा गया है, जिसका आशय व्रत रूपी गुणों को धारण करना है। आवश्यक टीका में गुणधारण शब्द का अर्थ विश्लेषण करते हुए उसे मूलगुण और उत्तरगुण रूप प्रत्याख्यान बतलाया है। प्रत्याख्यान के प्रकार ___परित्याग करने की प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान है। जैन ग्रन्थों में प्रत्याख्यान अनेक प्रकार का बतलाया गया है।
द्विविध प्रत्याख्यान- जैन महर्षियों ने प्रत्याख्यान के मुख्य दो प्रकार माने हैं- 1. द्रव्य प्रत्याख्यान और 2. भाव प्रत्याख्यान। जो प्रत्याख्यान आत्मिक उल्लास से रहित होता है अथवा आहार, वस्त्र आदि बाह्य वस्तुओं का किंचिद् त्याग करना द्रव्य प्रत्याख्यान है। आत्मिक उल्लासपूर्वक ग्रहण किया गया प्रत्याख्यान अथवा अज्ञान, मिथ्यात्व, असंयम, कषाय आदि वैभाविक वृत्तियों का त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है।
इन द्विविध प्रत्याख्यान में भाव-प्रत्याख्यान का विशिष्ट महत्त्व है, क्योंकि वह सम्यक् चारित्र रूप होने से अवश्य ही मुक्ति का साधन बनता है। यद्यपि भाव प्रत्याख्यान का अधिकारी बनने के लिए प्रारम्भ में द्रव्य-प्रत्याख्यान का आश्रय लेना आवश्यक है। वस्तुत: द्रव्य त्याग भाव त्याग पर ही आधारित है। द्रव्य त्याग तभी प्रत्याख्यान की कोटि में गिना जाता है जब वह राग-द्वेष रूप कषाय भाव को मन्द करने के लिए एवं ज्ञानादि सद्गुणों की प्राप्ति के निमित्त किया जाए। जो द्रव्य त्याग-भावपूर्वक नहीं होता है तथा भाव त्याग के उद्देश्य से नहीं किया जाता है उससे किसी भी दशा में अंश मात्र भी आत्मिक गुणों का विकास नहीं हो सकता है, प्रत्युत कभी-कभी तो मिथ्याभिमान एवं बाह्य प्रदर्शन के कारण वह अध:पतन का कारण भी बन जाता है। इसलिए भाव-प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेद वर्णित हैं। भाव-प्रत्याख्यान के दो प्रकार हैं- श्रुत प्रत्याख्यान और नोश्रुत प्रत्याख्यान।