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________________ अध्याय-7 प्रत्याख्यान आवश्यक का शास्त्रीय अनुचिन्तन प्रत्याख्यान षडावश्यक का छठा अंग है। इच्छाओं के निरोध के लिए प्रत्याख्यान एक आवश्यक कर्त्तव्य है । इस दुर्लभ मानव तन को समग्र रूप से सार्थक करने हेतु जीवन में त्याग होना अत्यन्त जरूरी है। इस रूप में प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग भी माना जा सकता है। मोक्षमार्ग में श्रमण एवं गृहस्थ के लिए कुछ नित्य कर्मों का प्रावधान है उनमें आत्मशुद्धि के लिए प्रत्याख्यान का समावेश भी किया गया है। अतः प्रत्याख्यान मोक्षाभिलाषी साधकों का दैनिक आचार है। तत्त्वतः भविष्य काल में होने वाले पाप कर्मों से निवृत्त होने के लिए गुरु साक्षी या आत्मसाक्षी पूर्वक हेय वस्तु का त्याग करना प्रत्याख्यान कहलाता है। प्रत्याख्यान का अर्थ विनियोग • प्रत्याख्यान का सामान्य अर्थ है - त्याग करना, प्रवृत्ति को मर्यादित करना, सीमित करना। • प्रत्याख्यान का तत्त्व मीमांसीय अर्थ है- आस्रव का निरोध करना अथवा जिन प्रवृत्तियों से दुष्कर्मों का आगमन हो, वैसी क्रियाओं का त्याग कर देना प्रत्याख्यान है। • प्रत्याख्यान शब्द की रचना 'प्रति' + 'आङ्' उपसर्ग, 'ख्या' धातु एवं 'ल्युट्' (अनट्) प्रत्यय- इन चार के संयोग से हुई है । इसका स्पष्टार्थ है कि भविष्यकाल के प्रति, मर्यादा के साथ, अशुभ योग से निवृत्ति और शुभ योग में प्रवृत्ति का आख्यान करना प्रत्याख्यान है। • भाष्यकार जिनभद्रगणी ने 'प्रति' शब्द का अर्थ - निषेध एवं 'आख्यान' का अर्थ - ख्यापना अथवा आदरपूर्वक आख्यान करना, ऐसा किया है। इस व्याख्या के अनुसार प्रतिषेध का आख्यान करना प्रत्याख्यान अथवा निवृत्ति है। 1 • टीकाकारों ने इसकी व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। टीकाकार आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार मन, वचन और काया के द्वारा जो अनिष्टकारक
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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