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316...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
चतुःशरण प्रकीर्णक, गा. 6 88. जिनवाणी, प्रतिक्रमण विशेषांक, पृ. 214 89. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भा. 2,
पृ. 406 90. जिनवाणी, पृ. 213 91. वही, पृ. 221 92. वही, पृ. 221 93. तत्त्वार्थसूत्रराजवार्तिक, 9/26, पृ. 624-625 94. सामायिक पाठ, आचार्य अमितगति, श्लो. 2 95. ममत्वं देहतो नश्येत, कायोत्सर्गेण धीमताम् । निर्ममत्वं भवेन्नून, महाधर्मसुखाकरम् ।।
प्रश्नोत्तरश्रावकाचार, 18/185 96. श्रमणसूत्र, पृ. 97-98 के आधार पर 97. वासीचंदणकप्पो, जो मरणे जीविए य समसण्णो । देहे य अपडिबद्धो, काउसग्गो हवइ तस्स ।।
आवश्यकनियुक्ति, 1548 98. जल्लमललित्तगत्तो, दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारी।
सहधोवणादि-विरओ, भोयणसेज्जादिणिरवेक्खो॥ ससरूवचिंतणरओ, दुज्जणसुयणाण जो हु मज्झत्थो । देहे वि णिम्ममत्तो, काओसग्गो तओ तस्स ॥
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 465-466 99. शिष्य को धार्मिक अनुष्ठान क्रियाएँ गुरु की आज्ञा पूर्वक करनी चाहिए।
इसलिए प्रत्येक क्रिया करते हुए शिष्य विनय पूर्वक ऐसे शब्दों द्वारा अनुमति मांगता है और गुरु विद्यमान हो, तो 'पडिक्कमेह' आदि प्रसंगोचित प्रतिवचन द्वारा संमति प्रदान करते हैं, तब शिष्य 'इच्छं' शब्द द्वारा गुर्वाज्ञा को स्वीकार
करके क्रिया करते हैं। प्रबोध टीका, भा. 1 पृ. 77-130 100. जिनवाणी, पृ. 218 101. बोधिचर्यावतार, 3/12-13