________________
कायोत्सर्ग आवश्यक का मनोवैज्ञानिक अनुसंधान ...303 कायोत्सर्ग के द्वारा इन्द्रियों पर नियंत्रण किया जाता है जिससे ऐन्द्रिक क्रियाओं में संतुलन स्थापित होता है। मन, वाणी और काया के नियंत्रण एवं संतुलन से जीवन well managed बन जाता है। स्वस्थ मन एवं शरीर में क्रोधादि कषाय, आवेश आदि जल्दी से उत्पन्न नहीं होते, इससे क्रोधादि कषायों का प्रबन्धन होता है। निज स्वभाव में मग्न रहने से दृष्टि बाह्य विषयों में नहीं भटकती, इससे दृष्टि प्रबन्धन होता है। इसी प्रकार दुष्भावों एवं दुष्चिंतन का परिमार्जन होने से सद्भावों में वृद्धि होती है तथा भावों में भी संतुलन स्थापित होता है। कायोत्सर्ग का अधिकारी कौन?
कायोत्सर्ग, पाप विशोधन की शास्त्रीय प्रक्रिया है अत: इस साधना में सामान्य व्यक्ति सफल नहीं हो सकता है। उद्यमवन्त एवं सामायिक आदि में अभ्यस्त साधक ही इसका सार्थक परिणाम उपलब्ध कर सकता है। आचार्य भद्रबाहु ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जो मुनि कुल्हाड़ी से काटने या चंदन का लेप करने पर भी समान भार रखता है, जीवन और मरण में सम रहता है तथा देह के प्रति बंधा हुआ नहीं है उसी के कायोत्सर्ग होता है।97
आचार्य अमृतचन्द्र के अभिमतानुसार जिस मुनि का शरीर पसीना और मैल से लिप्त हो, जो दुःसह रोग के उत्पन्न हो जाने पर भी उसका उपचार नहीं करता हो, शारीरिक विभूषा, यथा हाथ-पैर धोना आदि संस्कारों से उदासीन हो, भोजन, शय्या आदि की अपेक्षा नहीं करता हो, अपने स्वरूप चिन्तन में लीन हो, मित्र और शत्रु के प्रति मध्यस्थ हो तथा शरीर के प्रति ममत्व न रखता हो, उसके कायोत्सर्ग होता है।98
यहाँ मुनि शब्द से तात्पर्य चारित्रवान् आत्मा ही नहीं है, अपितु जो भी साधक उक्त गुणों से युक्त हो, वे सभी ग्राह्य हैं। दूसरे, एक स्थान पर निष्चेष्ट खड़े होना या बैठना ही कायोत्सर्ग नहीं है, परन्तु देहाभ्यास से देहातीत अवस्था तक पहुँचने के लिए जो भी आत्म मूलक प्रयत्न किये जाते हैं, सूक्ष्म रूप से वे सभी कायोत्सर्ग रूप हैं। यह कायोत्सर्ग की सूक्ष्म व्याख्या है। व्यवहार में स्थित देह की विशेष मुद्रा को कायोत्सर्ग कहते हैं। कायोत्सर्गसूत्र : एक परिचय
जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में गमनागमन आदि प्रवृत्तियों द्वारा लगे हुए दोषों से निवृत्त होने के लिए एवं पंचाचार विषयक आत्मविशुद्धि के लिए जब