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________________ कायोत्सर्ग आवश्यक का मनोवैज्ञानिक अनुसंधान ... 299 ममत्व कम होने पर शरीर का शिथिलीकरण होता है और तनाव अल्प होते हैं। साधक देह की ममता से हटकर उस पर उठने वाली संवेदनाओं को निष्पक्ष भाव से देखने लगते हैं और मन ऐसी स्थिति में आ जाता है कि जैसे देह किसी अन्य की है और जो भी घटित हो रहा है वह उसे मात्र उदासीन भाव से देख रहे हैं। अब तक देह पर होने वाली घटनाओं को मन निष्पक्ष भाव से न देखकर यह चुनाव करता था कि यह संवेदना या घटना अच्छी है या बुरी और इस प्रकार राग-द्वेष में फंस जाता था। जो प्रिय है वह और चाहिए, जो अप्रिय है वह हटना चाहिए, इसी प्रतिक्रिया में तथा सुख या दुःख भोगने में ही जीवन बीत जाता है, परन्तु कायोत्सर्ग के अभ्यास से ज्ञाता - द्रष्टाभाव जागृत हो जाता है। इससे व्यक्ति देहातीत स्थिति का वरण कर अन्तिम लक्ष्य सिद्ध कर लेता है। रणजीतसिंह कुमट ने इस सम्बन्ध में जो विचार प्रस्तुत किए हैं वे अक्षरशः इस प्रकार हैं- मनोवैज्ञानिकों की मान्यतानुसार जागृत मस्तिष्क, मस्तिष्क का बहुत छोटा हिस्सा है और बहुत बड़ा हिस्सा है सुषुप्त मस्तिष्क, जो कभी सोता नहीं और हमारी विभिन्न गतिविधियों और आवेगों पर नियन्त्रण रखता है। जब तक सुषुप्त मस्तिष्क पर हमारा नियन्त्रण नहीं होगा और इसके प्रति जागृति नहीं होगी, हमारे क्रियाकलापों एवं आवेगों पर हमारा नियन्त्रण नहीं होगा। कायोत्सर्ग के द्वारा सुषुप्त मन तक पहुँचने का प्रयास किया जाता है। जिस सुषुप्त मस्तिष्क या अवचेतन मन में पूर्व से संस्कार भरे हुए हैं और जिससे हमारे आवेग संचालित या नियन्त्रित होते हैं, उसके प्रति जागरूक हुए बिना हम अपने मन व शरीर पर पूर्ण रूप से नियन्त्रण नहीं कर सकते । अवचेतन मन में बहुत से विचार और संस्कार जन्म-जन्मान्तर से भरे पड़े हैं और हमारे कई कृत्य ऐसे होते हैं जिनको हम सचेत रूप से करते ही नहीं और हो जाने के बाद ताज्जुब या पश्चात्ताप करते हैं कि यह कैसे हो गया। अतः सही रूप से निःशल्य होने के लिए अवचेतन मन तक पहुँचना आवश्यक है और यह कायोत्सर्ग के माध्यम से सम्भव है। 91 यह भी ज्ञातव्य है कि कायोत्सर्ग में जब शरीर शिथिल होता है तब जागृत मस्तिष्क भी शिथिल हो जाता है, किन्तु सुषुप्त मन सक्रिय रहता है और उसकी गतिविधियों को साक्षी भाव से देखने से आवेगों एवं संस्कारों को भी देखने का मौका मिलता हैं। संस्कार उभरकर शरीर पर संवेदनाओं के रूप में आते हैं जैसेशरीर में कहीं दर्द, कहीं फड़कन, खुजलाहट या कोई सुखद संवेदना जैसे दर्द
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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