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286... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
यह भी उल्लेख्य है कि बौद्ध दर्शन के अनुसार समाधि का अर्थ - कुशल चित्त की एकाग्रता है। कायोत्सर्ग की परिपूर्णता चित्त की एकाग्रता में ही सम्भव है।
कायोत्सर्ग और प्रेक्षाध्यान
यदि स्वरूप एवं प्रक्रिया की अपेक्षा विचार करें तो कायोत्सर्ग एवं प्रेक्षाध्यान- दोनों प्रक्रियाएँ लगभग समान हैं। कायोत्सर्ग की सम्यक साधना हेतु शरीर का शिथिलीकरण, श्वासोच्छ्वास का निरीक्षण एवं चैतन्य शक्ति का जागरण- ये तीनों तत्त्व आवश्यक हैं। युवाचार्य महाप्रज्ञजी के अनुसार प्रेक्षाध्यान करते समय भी दैहिक शैथिल्य, श्वास-प्रश्वास का अवलोकन एवं चित्त शक्ति को एकाग्र रखना जरूरी है।
कायोत्सर्ग द्वारा शरीर के सभी अवयवों (पैर से मस्तक तक) को छोटेछोटे हिस्सों में बाँटकर प्रत्येक भाग पर चित्त को केन्द्रित करते हुए स्वत: सूचन (auto suggestion) के माध्यम से शिथिलता का सुझाव देकर पूरे शरीर को शिथिल किया जाता है इसी के साथ शरीर को अधिक से अधिक स्थिर और निश्चल रखने का अभ्यास किया जाता है। प्रेक्षाध्यान के प्रारम्भिक चरण में भी इसी तरह की प्रक्रिया होती है । कायोत्सर्ग काल में शरीर शिथिल, किन्तु चेतन सत्ता जागृत रहती है। इसमें शरीर की सक्रियता स्थूल रूप से विराम पा लेती है। इस स्थिति में चेतन मन सो जाता है और अन्तर्मन जागृत होने लगता है। अन्तर्मन जिन संस्कारों से संस्कारित है उसका प्रभाव हमारे जागृत मन पर आता है, तब अनादिकाल से जमे हुए कुसंस्कारों - दुर्विचारों को छोड़ना मुश्किल होता है किन्तु कायोत्सर्ग से इसका सहज समाधान हो जाता है । कायोत्सर्ग के माध्यम से शरीर के प्रत्येक अवयव को शिथिल कर श्वास को मन्द और शान्त बनाया जाता है। स्थूल मन को निर्विषयी बनाकर आभ्यन्तर एवं सूक्ष्म मन की गाँठों (ग्रन्थियों) को सुझावों (भावना) के द्वारा खोला जाता है। प्रेक्षाध्यान का मुख्य उद्देश्य भी सूक्ष्म मन तक पहुँचकर उसे निर्विकारी और निर्विकल्पी बनाना है ।
यदि क्रम की दृष्टि से देखें तो कायोत्सर्ग प्रथम चरण है और प्रेक्षा द्वितीय चरण है। कायोत्सर्ग की स्थिति में ही प्रेक्षा सम्भव है। बिना कायोत्सर्ग प्रेक्षा करना मुश्किल है।