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282...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में का उल्लेख है ऐसा क्यों? इसका जवाब है कि अतिचारों की तरतमता के आधार पर श्वासोच्छ्वास का कालमान निश्चित किया गया है। किसी व्रत या आचार नियम में अधिक दोष लगने की संभावना रहती है तो उसके लिए उच्छ्वास का कालमान उस हिसाब से निर्धारित किया गया है। उदाहरण के तौर पर समझें तो गमनागमन प्रवृत्ति में अल्प दोष की शक्यता रहती है इसलिए 25 उच्छ्वास प्रेक्षा का निर्धारण किया गया है, किन्तु दिन भर की प्रवृत्तियों में अनेक तरह के दोष लगने की संभाव्यता रहती है इसलिए 100 उच्छ्वास प्रेक्षा का विधान किया गया है। इसका मूल अभिप्राय यह है कि निर्धारित श्वास-प्रश्वास का अवलोकन करने से यह आत्मा उस-उस सम्बन्धी दोषों से निवृत्त हो जाती है। इस प्रकार श्वासोश्वास का कालमान आवश्यक प्रवृत्ति एवं तज्जनित दोषों की न्यूनाधिकता के आधार पर निर्धारित किया गया है।
यदि कायोत्सर्ग की मूल परिपाटी का ऐतिहासिक आलोडन किया जाए तो अवगत होता है कि विक्रम की 5वीं-6वीं शती पर्यन्त यह प्रणाली यथावत रूप से प्रवर्तित थी। उसके पश्चात आचार्य हरिभद्रसूरि के समय से लेकर विक्रम की 14वीं-15वीं शती तक उच्छ्वास एवं लोगस्ससूत्र दोनों परिपाटियों के प्रवर्त्तमान रहने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। वर्तमान में श्वासोच्छ्वास की परिपाटी लुप्त प्रायः हो गई है। आजकल लगभग लोगस्ससूत्र या नमस्कारमन्त्र का ही स्मरण किया जाता है, जो अपवाद मार्ग है। कायोत्सर्ग और कायगुप्ति __ कुछ लोग कायोत्सर्ग और कायगुप्ति को समानार्थक मानते हैं अथवा कायोत्सर्ग ही कायगुप्ति है, ऐसा कहते हैं किन्तु आचार्य अपराजित ने इस तथ्य का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है- कायगुप्ति में केवल शरीरगत ममत्व भाव का त्याग होता है जबकि कायोत्सर्ग में कर्मादान की निमित्तभूत समग्र कायिक क्रिया से निवृत्ति होती है तथा उसके साथ-साथ काय सम्बन्धी ममता का भी त्याग होता है। यद्यपि कायोत्सर्ग में भी कायिक क्रिया की निवृत्ति रूप कायगुप्ति होती हैं तथापि 'शरीर विषयक ममत्व की निवृत्ति'- इस अपेक्षा से ही कायोत्सर्ग (शब्द) की प्रवृत्ति होती है। यदि कायगुप्ति का अर्थ- 'देह ममत्व की निवृत्ति' इतना ही माना जाए तो भागना, दौड़ना, गमन करना आदि क्रिया करने वाले प्राणियों में भी कायगुप्ति माननी पड़ेगी, क्योंकि उन क्रियाओं को करते समय