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कायोत्सर्ग आवश्यक का मनोवैज्ञानिक अनुसंधान ... 283
काया के प्रति ममत्व नहीं होता है। यदि 'शारीरिक क्रिया का त्याग करना काय गुप्ति है' ऐसा माने तो मूर्च्छित व अचेत व्यक्ति में भी कायगुप्ति माननी पड़ेगी। अतः केवल शरीर सम्बन्धी ममत्व का त्याग करना भी कायगुप्ति नहीं है और मात्र शारीरिक क्रिया से निवृत्त होना भी कायगुप्ति नहीं है इन दोनों का समन्वित स्वरूप ही कायगुप्ति कहलाता है तथा देहासक्ति का विसर्जन करना कायोत्सर्ग है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो कायोत्सर्ग में शरीरगत ममत्व के त्याग की प्रधानता है और कायगुप्ति में समस्त शारीरिक चेष्टाओं से निवृत्त होने की प्रधानता है 164 कायोत्सर्ग और ध्यान
कायोत्सर्ग और ध्यान- ये दो भिन्न-भिन्न क्रियाएँ हैं । कायोत्सर्ग का मुख्य प्रयोजन ध्यान है इसलिए ध्यान की सिद्धि हो, तो कायोत्सर्ग की सिद्धि स्वयमेव हो जाती है।
कायोत्सर्ग प्रारम्भिक भूमिका है, कायोत्सर्ग के द्वारा ध्यान में प्रवेश किया जाता है। कायोत्सर्ग साधना का प्राथमिक चरण है और ध्यान अन्तिम चरण । कायोत्सर्ग में मुख्य रूप से काय की निश्चलता - स्थिरता होती है, जबकि ध्यान में मन-वचन और काया- इन तीनों योग की निश्चलता एवं एकाग्रता होती है। कायोत्सर्ग काल में ध्यान हो, यह आवश्यक नहीं है किन्तु ध्यान कायोत्सर्ग पूर्वक ही होता है।
आचार्य महाप्रज्ञजी ने ध्यान की जन्म सामग्री का निर्देश देते हुए कहा है कि अनासक्ति, कषाय निग्रह, मनोविजय, व्रत धारण और इंद्रिय विजय- इन पाँच के सद्भाव में ध्यान का जन्म होता है। ध्यान के अवतरण के लिए उक्त पाँच गुणों का होना आवश्यक है। इनमें सर्वप्रथम अनासक्ति (कायोत्सर्ग) को स्थान दिया गया है।
जब संग का त्याग होता है, आसक्ति कम होती है तब ध्यान का जन्म होता है। तीव्र आसक्ति वाले चित्त में कभी भी ध्यान का प्रगटीकरण नहीं हो सकता । इसी तरह कषाय नियंत्रण, मनोनिग्रह आदि का होना भी आवश्यक है। 65 अभ्यास दशा की अपेक्षा
कायोत्सर्ग और ध्यान पृथक्-पृथक् होने पर भी यह सत्य है कि कायोत्सर्ग की पूर्णता ध्यान में है, कायोत्सर्ग की परमार्थ फलश्रुति ध्यान है।