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________________ 278...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में श्वासोश्वास के निश्चित पुद्गल वर्गणाओं को लेकर जन्म लेती है। यदि किसी की श्वास क्रिया तेजगति से चलती है तो उसका आयुष्य शीघ्र पूर्ण होता है। इस अवसर्पिणी काल के दुःखम काल खण्ड में जन्म लेने वाले लोगों का आयुष्य चौथे आरे में जन्म लेने वाले या आदिनाथ आदि तीर्थंकर काल में जन्म लेने वाले प्राणियों की अपेक्षा इसीलिए बहुत कम है कि वह क्रोध, कपट, ईर्ष्या, कषाय, विषय जैसे दुष्टवृत्तियों का शिकार हो चुका है, हो रहा है, जिसके प्रभाव से उच्छ्वास क्रिया वेग पूर्वक चलती है। कायोत्सर्ग पूर्वक श्वासप्रेक्षा करने से उसके वेग में मन्दता आती है और कुसंस्कारी स्वभाव में परिवर्तन होता है। दूसरा तथ्य यह है कि हमारा सबसे निकटतम सम्बन्ध श्वास-प्रश्वास से है। शरीर और मन के बीच में श्वास है। श्वास-प्रश्वास के बिना न मन जीवित रह सकता है न शरीर। चैतन्य और शरीर के बीच का सेत् श्वास है। श्वासप्रश्वास का नियमन ही आत्मिक शक्ति को जागृत करता है। कायोत्सर्ग काल में शक्ति का जागृत होना तथा मन का जागरूक रहना अत्यन्त आवश्यक है। जब श्वासोच्छ्वास प्रेक्षा से चित्तशक्ति जागृत एवं मन जागरूक हो जाता है तब यथार्थ रूप में कृत अपराधों का बोध होने से एवं पश्चात्ताप करने से दोष मुक्ति सहज हो जाती है। तीसरा तथ्य है कि श्वासोच्छ्वास क्रिया पर मन को केन्द्रित करने से श्वास लम्बा और गहरा होता है, उसकी गति मन्द हो जाती है। श्वास जितना धीमा होता है शरीर की क्रियाशीलता उतनी ही न्यून हो जाती है। श्वास की सूक्ष्मता ही शान्ति है। श्वासप्रेक्षा के प्रारम्भ काल में ऊर्जा का फैलाव और नया उत्पादन कुछ भी नहीं होता, केवल ऊर्जा का संरक्षण होता है। कुछ दिनों के पश्चात यह संचित ऊर्जा मन को एक दिशागामी बनाकर उसे ध्येय में प्रवृत्त करती है। मूलत: श्वास की मंदता से शरीर निष्क्रिय और प्राण शान्त हो जाते हैं। मन निर्विकार हो आत्माभिमुखी हो जाता है। ज्यों-ज्यों श्वास का वेग बढ़ता है त्यों-त्यों मन की चंचलता भी अभिवृद्ध होती है। श्वास के स्थिर होने के साथ-साथ मन की चंचलता भी नष्ट हो जाती है। श्वास की निष्क्रियता ही मन की शान्ति और समाधि है। जब व्यक्ति को क्रोध आता है या कामुक बनता है उस समय श्वास की गति तीव्र हो जाती है, किन्तु कायोत्सर्ग या ध्यान आदि की अवस्था में श्वासगति मन्द होने से मन सचेत बना रहता है, उस स्थिति में पूर्वकृत दोष स्वयमेव विनष्ट हो जाते हैं।
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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