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276...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
अत्यन्त शान्त प्रज्ञावान् साधक को धर्मध्यान करने के लिए शब्द,रूप, रस, गंध व स्पर्श- इन पाँच विषयों से इन्द्रियों को सम्यक् प्रकार से खींचकर मन को निश्चल रखना चाहिए।54
तदनन्तर चेतन या अचेतन वस्तु का दृढ़ आलंबन लेकर सूत्र और अर्थ का ध्यान करना अथवा द्रव्य और उसकी पर्याय का भी चिंतन करना।55
इस कथन का तात्पर्य यह है कि कायोत्सर्ग में समुपस्थित होने वाले साधक के लिए देहभाव के विसर्जन के साथ-साथ इन्द्रियजन्य विषयों एवं मानसिक विकल्पों से रहित होना आवश्यक है तभी शुभ ध्यान का अवतरण हो सकता है। पतंजलि के अनुसार यही प्रत्याहार है। कायोत्सर्ग और हठयोग __जैन परम्परा में निर्दिष्ट कायोत्सर्ग और हठयोग साधनावर्ती शवासनदोनों की प्रक्रिया में कुछ समानता है, किन्तु मूलभूत स्वरूप में अन्तर है। ___शवासन में केवल शिथिलता का प्रयोग होता है जबकि कायोत्सर्ग में शिथिलता के साथ-साथ ममत्व के विसर्जन एवं भेद विज्ञान का प्रयोग भी होता है। जब तक भेद विज्ञान नहीं होता, कायोत्सर्ग नहीं सधता। ‘आत्मा भिन्न है,
और शरीर भिन्न है'- यह बुद्धि जागृत होना भेद विज्ञान है। कायोत्सर्ग तब तक नहीं सधता जब तक ममत्व का विसर्जन नहीं सधता। कायोत्सर्ग का अभ्यास करने वाले प्रत्येक साधक को यह बोध निरंतर होना चाहिए कि मैं केवल शिथिलता का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ, केवल प्रवृत्ति का विसर्जन या तनाव का विसर्जन नहीं कर रहा हूँ, मैं ममत्व विसर्जन के साथ शिथिलता का अभ्यास कर रहा हूँ अथवा ममत्व विसर्जन के लिए शिथिलता का अभ्यास कर रहा हूँ। जब ममत्व का विसर्जन होता है तभी कायोत्सर्ग सही अर्थों में कायोत्सर्ग कहलाता है, किन्तु शवासन में मात्र शिथिलीकरण का ही अभ्यास होता है।56 कायोत्सर्ग और श्वासोश्वास
यह अत्यन्त मौलिक प्रश्न है कि जैन विचारणा में अतिचार (दोष) शुद्धि के लिए कायोत्सर्ग का जो विधान है उसे श्वासोच्छवास के साथ जोड़ने का अभिप्राय क्या है? स्वरूपतया कायोत्सर्ग-काल में कृत अपराधों का स्मरण कर उसका पश्चात्ताप होना चाहिए। यद्यपि गोचरचर्या आदि में लगने वाले दोषों से निवृत्त होने के लिए कायोत्सर्ग में अतिचार चिंतन का भी निर्देश है, किन्तु प्रायः