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कायोत्सर्ग आवश्यक का मनोवैज्ञानिक अनुसंधान ... 275
यहाँ प्रत्याहार शब्द पर विचार करना प्रासंगिक होगा। प्रत्याहार शब्द का व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ है- 'प्रत्याह्रियन्ते इन्द्रियाणि विषयेभ्यो येन स प्रत्याहारः ' अर्थात जिसके द्वारा इन्द्रियों को विषयों से प्रत्याहृत कर, खींचकर वश में किया जाता है उसे प्रत्याहार कहते हैं । इन्द्रियों के साथ-साथ मन पर भी यही घटित होता है।
अष्टांग योग में यम से प्राणायाम तक चारों चरण योग के बाह्य अंग कहे गये हैं, आगे के चार आभ्यन्तर अंग हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने योगांग क्रम के अनुसार प्रत्याहार का स्वरूप वर्णन करते हुए कहा है- प्रशान्त बुद्धियुक्त साधक अपनी इन्द्रियों और मन को उनके विषयों से खींचकर जहाँ-जहाँ उसकी इच्छा हो वहाँ धारण करें, वह प्रत्याहार है। जिसकी परिग्रह आदि से आसक्ति मिट गयी है, जिसका अन्त:करण संवर में अनुरक्त है, जिसने कच्छप की भाँति स्वयं को पापास्रव से संवृत्त कर रखा है वैसा संयमी साधक राग-द्वेष रहित समभाव युक्त होकर ध्यान तंत्र में अथवा ध्यानाभ्यास में स्थिर होने हेतु प्रत्याहार स्वीकार करता है।
प्रत्याहार साधना में प्रवेश करने वाला साधक प्रथम अपनी इन्द्रियों को विषयों से पृथक करें, फिर इन्द्रियों को मन से भी अलग करें और तदनन्तर मन को निराकुल बनाकर अपने ललाट पर निश्चलता पूर्वक टिकायें, धारण करें, यह प्रत्याहार की एक विधि है। 53
प्रत्याहार द्वारा इन्द्रियों को विषयों से खींचने एवं पृथक करने से मन समस्त उपाधियों, रागादि रूप विकल्पों से रहित हो जाता है, समभाव को अधिगत कर वह आत्मलीन बन जाता है। कायोत्सर्ग का निरंतर एवं उत्तम अभ्यास करने वाले साधक की भी यही स्थिति होती है। शरीर के मोहभाव को दूर करने का तात्पर्य है - ऐन्द्रिक विषयों एवं वासनादि विकल्पों से रहित हो
जाना।
प्रस्तुत सन्दर्भ में यह भी उल्लेख्य है कि मूलगुण यम है, उत्तरगुण नियम है, जिनमुद्रा - पद्मासन आदि का प्रयोग आसन है और स्पर्शनेन्द्रिय आदि पाँच इन्द्रियाँ तथा मनोबल, वचनबल और कायबल - इन आठ प्राणों के निग्रह का सम्यक् अभ्यास करना प्राणायाम है। धर्मध्यान की सिद्धि के लिए प्रत्याहार जरूरी है। इस मत का पोषण करते हुए हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में कहा है