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________________ 256...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में 3. उपविष्ट उत्थित- बैठे हुए की मुद्रा में धर्मध्यान या शुक्ल ध्यान करना, उपविष्ट उत्थित कायोत्सर्ग है। इस कायोत्सर्ग में साधक अशक्ति आदि कारणों से खड़ा तो नहीं हो पाता, परन्तु भाव से खड़ा रहता है अर्थात आत्मा जागृत रहती है। 4. उपविष्ट-निविष्ट- बैठे हुए आसन में आर्त्त-रौद्र ध्यान रूप अशुभ चिन्तन में लीन रहना, उपविष्ट-निविष्ट कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग के इस प्रकार में न तो शरीर उत्थित रहता है और न शुभ परिणाम ही, दोनों आत्मिक दृष्टि से सुप्त रहते हैं। यह कायोत्सर्ग नहीं, मात्र उसका दम्भ है। उपर्युक्त कायोत्सर्ग चतुष्टय में से साधक के लिए पहला और तीसरा कायोत्सर्ग ही उपादेय है। ये दोनों कायोत्सर्ग वास्तविक रूप में कायोत्सर्ग माने जाते हैं। इनके द्वारा यह जीव अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर परमार्थ आनन्द की अनुभूति कर सकता है।22 नवविध- शारीरिक अवस्थिति और मानसिक चिन्तनधारा की दृष्टि से आचार्य भद्रबाह ने कायोत्सर्ग के नौ प्रकार भी उपदिष्ट किये हैं-23 1. उच्छ्रित-उच्छ्रित खड़े होकर धर्म ध्यान एवं शुक्ल ध्यान में प्रवृत्त होना। 2. उच्छ्रित खड़े होकर धर्म, शुक्ल, आर्त एवं रौद्र- किसी ध्यान में प्रवृत्त नहीं होना, चिन्तनशून्य रहना। इसमें खड़े होकर कायोत्सर्ग करना द्रव्यत: उच्छ्रित है, धर्म ध्यान का अभाव होना भावतः शून्य है।24 3. उच्छ्रित-निषण्ण खड़े होकर आर्त-रौद्र ध्यान करना। यहाँ खड़े होकर ध्यान करना-द्रव्यत: उच्छ्रित है तथा आर्त्त-रौद्र ध्यान करना भावत: निषण्ण है। 4. निषण्ण-उच्छ्रित बैठ हुए धर्म ध्यान एवं शुक्ल ध्यान करना। यहाँ द्रव्यत: निषण्ण और भावत: उच्छ्रित है। 5. निषण्ण बैठे हुए धर्म-शुक्ल अथवा आर्त्त-रौद्र किसी ध्यान में संलग्न नहीं होना। यहाँ द्रव्यतः निषण्ण और भावत: शून्य है।
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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