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कायोत्सर्ग आवश्यक का मनोवैज्ञानिक अनुसंधान ... 255
आचार्य भद्रबाहु के अभिमतानुसार कायोत्सर्ग के दो प्रकार निम्न हैं1. चेष्टा और 2. अभिभव ।
1. चेष्टा कायोत्सर्ग - भिक्षाचर्या, विहार, स्थंडिलगमन आदि की प्रवृत्ति के पश्चात कायोत्सर्ग करना चेष्टा कायोत्सर्ग है। चेष्टा कायोत्सर्ग विविध प्रयोजनों से किया जाता है अतः अनेक प्रकार का है।
2. अभिभव कायोत्सर्ग - देवता, मनुष्य या तिर्यञ्च कृत उपसर्गों को सहन करने के लिए, अष्टविध कर्मशत्रुओं को पराजित करने के लिए एवं शुभ ध्यान की सिद्धि करने के लिए कायोत्सर्ग करना अभिभव कायोत्सर्ग है 120 अभिभव कायोत्सर्ग निम्न दो प्रकार का कहा गया है
(i) पराभिभूत- हूण, शक आदि आक्रामक लोगों से अभिभूत होकर 'मैं शरीर आदि सभी का व्युत्सर्ग करता हूँ' - इस संकल्प के साथ कायोत्सर्ग करना, योग्य स्थान पर निश्चेष्ट स्थिर हो जाना, पराभिभूत अभिभव कायोत्सर्ग है।
(ii) पराभिभव - अनुलोम- प्रतिलोम उपसर्ग करने वाले देव, मनुष्य आदि को तथा क्षुधा, ममता, परीषह, अज्ञान और भय - इन पाँचों को अभिभूत करने हेतु कायोत्सर्ग का संकल्प करना, पराभिभव कायोत्सर्ग है। 21
चतुर्विध- आचार्य शिवार्य, आचार्य वट्टकेर आदि ने कायोत्सर्ग के चार रूपों का निरूपण किया है, जो द्रव्य और भाव रूप कायोत्सर्ग को समझने के लिए परम आवश्यक है
1. उत्थित - उत्थित - धर्मध्यान या शुक्लध्यान पूर्वक कायोत्सर्ग करना उत्थितोत्थित कायोत्सर्ग है। यह कायोत्सर्ग करने वाला पुरुष द्रव्य और भाव दोनों से उत्थित (जागृत) होता है । स्थाणु की भाँति शरीर का उन्नत एवं निश्चल रहना, द्रव्योत्थान है। आत्मा के मूल स्वरूप की प्राप्ति कराने में निमित्तभूत एक ही वस्तु में स्थिर रहना भावोत्थान है।
2. उत्थित निविष्ट - आर्त्त - रौद्र ध्यान की परिणति पूर्वक कायोत्सर्ग करना, उत्थित निविष्ट कायोत्सर्ग कहलाता है । इस कायोत्सर्ग में साधक द्रव्य से खड़ा होता है, परन्तु भाव से गिरा रहता है अर्थात इसमें शरीर तो खड़ा रहता है पर आत्मा बैठी रहती हैं। इसी से एक काल और एक क्षेत्र में उत्थान (खड़े होना) और निविष्ट (बैठना ) इन दोनों आसनों में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि दोनों के निमित्त भिन्न हैं ।