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________________ 248... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में प्रवचनसार के अनुसार मूल स्वरूप को प्रकट करने वाली क्रिया बृहद् प्रतिक्रमण कहलाती है। 19 सामान्य रूप में प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ 'पापों से निवृत्त होना' अथवा 'पापों से पीछे हटना' इस रूप में सर्वग्राह्य है। आत्मा की वृत्ति जो अशुभ हो चुकी है, उस वृत्ति को शुभ स्थिति में लाना अथवा अतीत के जीवन का प्रामाणिकता पूर्वक सूक्ष्म निरीक्षण कर भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न हो, ऐसा संकल्प करना प्रतिक्रमण है। शब्द विन्यास की दृष्टि से प्रतिक्रमण का अर्थ इस प्रकार भी किया गया है - प्रति प्रतिकूल, क्रम-पद निक्षेप । इसका स्पष्टार्थ है कि जिन पदों से मर्यादा के बाहर गया है उन्हीं पदों से वापस लौट आना प्रतिक्रमण है। जैसा कि पूर्व में कहा भी गया है स्वस्थानाद यत्परस्थानं, प्रमादस्यवशाद् गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ।। उपर्युक्त व्याख्याओं का समीकरण किया जाए तो निम्न निष्पत्तियाँ उपलब्ध होती हैं • व्रत, नियम या मर्यादा का उल्लंघन हुआ हो तो पुनः उस मर्यादा में आना प्रतिक्रमण है। • शुभ योगों में से अशुभ योगों में प्रवृत्त हुई आत्मा का वापस शुभ योगों में आना प्रतिक्रमण है। • प्रमाद वश विभाव की ओर उन्मुख हुई आत्मा का पुनः स्वभाव में आना प्रतिक्रमण है। • मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से आत्मा को हटाकर सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान एवं सम्यकचारित्र में प्रवृत्त करना प्रतिक्रमण है। • किये हुए पाप कार्यों की आलोचना एवं पश्चात्ताप करके, उन्हें फिर से न दोहराने का संकल्प करना प्रतिक्रमण है। इस तरह प्रतिक्रमण एक प्रकार का आत्म स्नान है जिसके माध्यम से आत्मा कर्म रहित होकर हल्की एवं पवित्र बनती है।
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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