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प्रतिक्रमण आवश्यक का अर्थ गांभीर्य ...247
द्वारा निन्दा और गर्दा पूर्वक शोधन करना प्रतिक्रमण है।12 इसका स्पष्टार्थ यह है कि आहार, शरीर आदि द्रव्य के विषय में; वसति, शयन, आसन और गमन-आगमन आदि मार्ग रूप क्षेत्र के विषय में; पूर्वाह्न, अपराह्न, दिवस, रात्रि, पक्ष, मास, संवत्सर तथा भूत-भविष्य-वर्तमान आदि काल के विषय में और मन के परिणाम रूप भाव के विषय में अथवा इन द्रव्यादि चतुष्क के द्वारा व्रतों में जो दोष उत्पन्न होते हैं उनका निन्दा-गर्हापूर्वक निराकरण करना अथवा अपने द्वारा किये गये अशुभ योग से प्रतिनिवृत्त होना, गृहीत व्रतों में स्थिर हो जाना अथवा अशुभ परिणाम पूर्वक किये गये दोषों का परित्याग करना प्रतिक्रमण है।
यहाँ अपने दोषों को आत्मसाक्षी पूर्वक प्रकट करना निन्दा है और गुरु आदि के समक्ष दोषों का प्रकाशन करना गर्दा है। ___नियमसार में वाचिक प्रतिक्रमण को स्वाध्याय कहा है।13 धवलाटीका के रचयिता वीरसेनाचार्य ने पूर्वोक्त मतों का अनुसरण करते हुए कहा है कि सद्गुरु के समक्ष आलोचना किए बिना, संवेग और निर्वेद से युक्त होकर, फिर से पूर्वकृत दोषों को न करने का संकल्प करते हुए अपराधों से निवृत्त होना प्रतिक्रमण नाम का प्रायश्चित्त है।14 ___ आचार्य कुन्दकुन्द निश्चय दृष्टि से प्रतिक्रमण का स्वरूप दर्शाते हुए कहते हैं कि पूर्वकाल से आबद्ध शुभ एवं अशुभ कर्म से अपनी आत्मा को विलग रखना, वह आत्म प्रतिक्रमण है।15 आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार में वर्णित है कि वाचिक प्रयोग को छोड़कर एवं रागादि भावों का निवारण करके जो केवल आत्मा को ध्याता है, उसे प्रतिक्रमण होता है। जो भव्य जीव विराधना का परिहार करके आराधना में प्रवर्तन करता है, वह जीव प्रतिक्रमण कहलाता है क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय है।16 इसी प्रकार अनाचार को छोड़कर आचार में, उन्मार्ग का त्याग करके जिनमार्ग में, शल्यभाव को छोड़कर निःशल्य भाव से, आर्त्त-रौद्र ध्यान का वर्जन करके धर्म या शुक्ल ध्यान में, मिथ्यादर्शन आदि परित्याग करके सम्यग्दर्शन को ध्याता है, वह जीव प्रतिक्रमण है।17 यहाँ आशय है कि राग-द्वेष के परिणामों से रहित आत्मा ही प्रतिक्रमण की अधिकारी होती है और उसके द्वारा किया गया प्रतिक्रमण ही यथार्थ प्रतिक्रमण कहलाता है।
आचार्य अमितगति ने योगसार में प्रतिक्रमण की एक नई व्याख्या की है। उनके अनुसार पूर्वकाल में किए गए दुष्कर्मों के प्रदत्त फल को अपना नहीं मानना प्रतिक्रमण है।18