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246...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
क्षायोपशमिक भाव में लौट आता है, तब यह भी प्रतिकूल गमन के
कारण प्रतिक्रमण कहलाता है। 3. अशुभ योग से निवृत्त होकर निःशल्य भाव से उत्तरोत्तर शुभ योगों में
प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से जो कचरा आत्मभावों में आया है उसे सम्यक चिन्तन, आलोचन एवं पश्चाताप द्वारा बाहर करना, पीछे हटाना, प्रतिक्रमण है।
दशवैकालिकचर्णि में मिथ्या दृष्कृत देने को प्रतिक्रमण कहा गया है। प्रस्तुत चूर्णि के अनुसार समिति-गुप्ति का आचरण करते हुए अथवा आवश्यक क्रिया करते हुए अतिक्रमण हो जाने पर, सहसा अतिक्रमण होने पर, दूसरे के द्वारा कहे जाने पर अथवा स्वयं के द्वारा उस अतिक्रमण को याद कर ‘मिच्छामि दुक्कडं' देना प्रतिक्रमण है। इससे दोष शुद्धि होती है।
अनुयोगद्वारचूर्णि के अनुसार मूलगुणों और उत्तरगुणों में स्खलना होने पर जब पुन: संवेग की प्राप्ति होती है उस समय मुनि भाव विशुद्धि के कारण प्रमाद की स्मृति करता हुआ आत्म निन्दा और गुरुसाक्षीपूर्वक दोषों की गर्दा (निन्दा) करता है, वह प्रतिक्रमण है।'
दिगम्बराचार्य पूज्यपाद ने इस विषय का निरूपण करते हए कहा है कि 'मेरा दोष मिथ्या हो'- गुरु के समक्ष इस प्रकार निवेदन करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना, प्रतिक्रमण है।
आचार्य अकलंक, आचार्य वीरसेन, आचार्य अपराजित आदि ने दोष निवृत्ति को प्रतिक्रमण कहा है। जैसे- राजवार्तिक का पाठ है कि कृत दोषों से निवृत्त होना प्रतिक्रमण है। धवलाटीका का पाठांश है कि चौराशी लक्ष गुणों से संयुक्त पंच महाव्रतों में लगे हुए दोषों का शोधन करना, निवर्त्तन करना, प्रतिक्रमण है।10 विजयोदया टीका में लिखा गया है कि अचेलकत्व आदि दस स्थिर कल्प का परिपालन करते हुए मुनि के द्वारा जिन अतिचारों का सेवन किया जाता है उसके निवारणार्थ प्रतिक्रमण करना आठवाँ स्थितिकल्प है।11
मूलाचार आदि कतिपय ग्रन्थों के उल्लेखानुसार कृत दोषों के लिए मिथ्यादुष्कृत देना प्रतिक्रमण है। मूलाचार में यह भी कहा गया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में किये गये अपराधों का मन, वाणी एवं शरीर के