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232...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में फल के समान वह स्वयं के द्वारा ही विनाश को प्राप्त हो जाता है। जैन शास्त्रों का स्पष्ट निर्देश है कि रत्नत्रय प्राप्ति का अभिलाषी शिष्य गुरु की विनयपूर्वक आराधना करके उन्हें प्रसन्न रखें। तदुपरान्त किसी कारणवश गुरु का अविनय हो जाए या आशातना हो जाए तो उन दोषों की मन-वचनकाया से क्षमा मांगनी चाहिए। यही वजह है कि गुरु को वन्दन करते समय, दिवस और रात्रि कालीन प्रतिक्रमण करते समय, पक्ष, चातुर्मास और संवत्सर के दरम्यान हुए अपराधों की आलोचना करते समय क्षमापना सूत्र बोलकर गुरु से क्षमापना की जाती है।107 इस वर्णन से सिद्ध होता है कि जैन परम्परा में गुरु का स्थान सदैव महान रहा है। साथ ही आत्मविद्या की साधना हेतु उनके प्रति वन्दन आदि रूप विनय का आचरण करना परमावश्यक है।
वैदिक परम्परा में भी सद्गुणों की वृद्धि के लिए वन्दन को आवश्यक माना है। मनुस्मृति में कहा गया है कि अभिवादनशील और वृद्धों की सेवा करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, कीर्ति, और बल ये चारों बातें सदैव बढ़ती रहती है।108 भागवतपुराण में नवधा भक्ति का उल्लेख है उसमें वंदन भी भक्ति का एक प्रकार माना गया है।109
यहाँ वन्दन को साधना के अंगरूप में स्वीकार किया गया है तभी तो गीता के अन्त में 'मां नमस्कुरू' कहकर श्रीकृष्ण ने वन्दन के लिए भक्तों को सम्प्रेरित किया है।110
बौद्ध परम्परा में वन्दन को महापुण्य फल वाला बतलाया है। इस सम्बन्ध में बुद्ध ने कहा है कि पुण्य की अभिलाषा रखता हुआ व्यक्ति वर्ष भर में जो कुछ यज्ञ व हवन करता हैं, उसका फल पुण्यात्माओं के अभिवादन के फल का चौथा भाग भी नहीं होता। अत: सरल परिणामी महात्माओं का अभिवादन करना ही श्रेयस्कर है।111 धम्मपद में यह भी कहा गया है कि वृद्ध सेवी और अभिवादनशील पुरुष की चार वस्तुएँ निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होती है- आयु, सौन्दर्य, सुख और बल।112 सुस्पष्ट है कि वन्दन की शक्ति अप्रतिम है। __शास्त्रों में विनय को ज्ञान एवं धर्म का मूल माना है। यह एक गुण समस्त गुणों के विकास हेतु बिजरूप है। वन्दन आवश्यक के द्वारा व्यक्ति में ऐसे ही अनेक सद्गुणों का प्रस्फुटन होता है। प्रस्तुत अध्याय के माध्यम से साधक वर्ग