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226...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में ____ 'विणओ जिणसासणमूलो'- विनय जिन शासन का मूल है। जैनागमों में विनय और नम्रता को आभ्यन्तर तप की कोटि में स्थान दिया गया है। आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में कहा है कि जिन शासन का मूल विनय है। विनीत साधक ही सच्चा संयमी हो सकता है। जो विनयगुण से हीन है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप?95 दशवैकालिकसूत्र में अनेक उपमानों से विनय के मूल्य को दर्शाया गया है। इस आगम ग्रन्थ का नौवाँ अध्ययन ही 'विनयसमाधि' नाम का है, जो प्रस्तुत विषय का गम्भीर प्रतिपादन करता है। विनयाध्ययन में वृक्ष का रूपक देते हुए कहा है कि जिस प्रकार वृक्ष के मूल से स्कन्ध, स्कन्ध से शाखाएँ, शाखाओं से प्रशाखाएँ और फिर क्रमश: पत्र, पुष्प, फल एवं रस उत्पन्न होते हैं इसी प्रकार धर्म वृक्ष का मूल विनय है और उसका अन्तिम फल एवं रस मोक्ष है।96
अनगारधर्मामृत में विनय को इष्ट सद्गुणों का एकमात्र साधन दिखलाते हुए निर्दिष्ट किया गया है कि आर्यता, कुलीनता आदि गुणों से युक्त इस उत्तम मनुष्य पर्याय का सार मुनिपद धारण करने में है। इस आर्हती शिक्षा का सार सम्यक् विनय है और इस विनय में सत्पुरुषों द्वारा अभिलषित समाधि आदि गुण हैं। इस तरह विनय जैन शिक्षा का सार और इष्ट गुणों का मूल है।
__ इस तरह उत्तराध्ययनसूत्र आदि में भी विनय की मूल्यवत्ता को सिद्ध करने वाले अनेक तत्त्व उपलब्ध होते हैं। यहाँ यह समझ लेना अत्यन्त जरूरी है कि भले ही जैन धर्म में विनय को प्रधानता दी गई हो किन्तु वह धर्म वैनयिक नहीं है। भगवान महावीर के युग में एक ऐसा पन्थ था, जिसके अनुयायी पशु-पक्षी आदि जो भी मार्ग में मिल जाते, उन्हें वे नमस्कार कर लेते थे। जबकि परमात्मा महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है- हे मानव! तेरा मस्तक सद्गुणियों के चरणों में झुकना चाहिए, वही जीवन उत्कर्ष के लिए अर्थवान्-मूल्यवान् है। सद्गुणी के चरणों में झुकने का अर्थ है- सद्गुणों को नमन करना। सद्गुणों को नमन करने का अभिप्रेत है- उन गुणों को चरितार्थ कर लेना और स्वयं को तद्रूप बना लेना। नम्र होना अलग बात है और हर एक को आदरणीय समझकर नमस्कार करना अलग बात है। यहाँ विनय का मूल्य सद्गुणी, संतपुरुष, आप्त पुरुष की अपेक्षा से है।
वन्दन क्रिया का मूल उद्देश्य स्वयं को नम्रशील एवं ऋजु परिणामी बनाना