________________
220...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में होगा।' यह सोचकर चोर की तरह छुपकर वन्दन करना अथवा कोई देख नहीं ले, इस तरह अतिवेग से वन्दन करना।
17. प्रत्यनीक- आचार्य आदि के आहार, नीहार आदि के समय वन्दन करना।
18. रूष्ट- गुरु क्रोधाविष्ट हो, उस समय वन्दन करना अथवा स्वयं क्रोधयुक्त हो, तब वन्दन करना। ___19. तर्जना- हे गुरुदेव! तुम काष्ठ के महादेव के समान हो। वंदन करने से न प्रसन्न होते हो और न ही नाराज। फिर तुम्हें वंदन करने से क्या लाभ? आप दोनों स्थितियों में सम हो। इस प्रकार तर्जना करते हुए वंदन करना अथवा भृकुटी, तर्जनी आदि से तर्जना करते हुए वन्दन करना। ___20. शठ- वंदन विश्वास उत्पन्न करने का प्रमुख कारण है, ऐसा सोचकर लोगों में विश्वास उत्पन्न करने के अभिप्राय से यथार्थ विधिपूर्वक वन्दन करना अथवा रुग्णता आदि का झूठा मार्ग निकालकर यथाविधि वंदन न करना भी शठ दोष है। आजकल कई लोग अस्वस्थता आदि का बहाना ढूँढ़कर विधिवत वन्दन से बचाव कर लेते हैं।
21. हीलित- हे भगवन्! आपको वन्दन करने से क्या लाभ होगा? आदि वचनों से हीलना-अवज्ञा करते हुए वंदन करना।
22. विपलि(रि) कुंचित- 'वि' + ‘परि' उपसर्ग है और 'कुंच' धातु अल्पीकृत या अर्धीकृत अर्थ की सूचक है। विकथा करते हुए अल्पवंदन करना अथवा वंदन का एक चरण पूर्ण करके बीच में देश कथा आदि करना, इस प्रकार विपरीत एवं आधा-अधूरा वंदन करना।
23. दृष्टादृष्ट- अनेक साधु वंदन कर रहे हो उस समय किसी साधु की ओट में रहकर अथवा अंधेरे में गुरु देख नहीं सके ऐसी मन स्थिति से वंदन किए बिना खड़े रहना या बैठ जाना और गुरु देखने लगे तो तुरंत वंदन करना शुरू कर देना।
24. शृंग- जैसे- पशु के दो सींग मस्तक के बाएँ-दाएँ भाग में होते हैं वैसे ही अहो-काय-काय वगैरह आवर्त ललाट के मध्य भाग में न करते हुए बायें-दायें भाग पर करना।
25. कर- राज्य के टैक्स की तरह तीर्थंकर परमात्मा या गुरु का टैक्स