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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण... 221
समझकर वन्दन करना।
26. करमोचन- गृहस्थ जीवन का त्याग करने के कारण लौकिक कर से तो मुक्त हो गए किन्तु अरिहंत रूपी राजा के वन्दन रूपी कर से मुक्त नहीं हुए हैं, ऐसा समझकर वन्दन करना।
27. आश्लिष्ट - अनाश्लिष्ट - अहो कायं - काय आदि आवर्त्त करते समय दोनों हाथों से रजोहरण को और फिर मस्तक को स्पर्श करना चाहिए, किन्तु वैसा विधिपूर्वक नहीं करना । यहाँ स्पर्श के चार विकल्प बनते हैं, उनमें पहला विकल्प शुद्ध है
1. दोनों हाथों से रजोहरण को स्पर्श करना और मस्तक को स्पर्श करना । 2. दोनों हाथों से रजोहरण को स्पर्श करना और मस्तक को स्पर्श नहीं करना । 3. दोनों हाथों से रजोहरण को स्पर्श नहीं करना और मस्तक को स्पर्श करना। 4. दोनों हाथों से रजोहरण को स्पर्श नहीं करना और मस्तक को स्पर्श नहीं करना।
28. न्यून - वंदनसूत्र के व्यंजन (अक्षर), अभिलाप (पद - वाक्य) आदि कम बोलते हुए या अवनमन आदि पच्चीस आवश्यक पूर्ण न करते हुए वन्दन
करना।
29. उत्तर चूलिका - उत्तर - पश्चात, चूलिका - शिखा के समान ऊँचा । वन्दन करने के बाद 'मत्थएण वंदामि' पद जोर से बोलना अथवा चूलिका रूप में अधिक कहना।
30. मूक - गूंगे की तरह वंदनसूत्र के अक्षर, आलापक या आवर्त्त आदि को प्रकट स्वर में न बोलकर मुँह में गणगण या मन में बोलते हुए वन्दन करना। 31. ढड्ढर - वंदनसूत्र को तीव्र स्वर या जोर से बोलते हुए वंदन करना। 32. चूडलिक - चुडलिक का अर्थ है जलता हुआ काष्ठ। रजोहरण या चरवला को अलात (जलते हुए काष्ठ) की तरह गोल घुमाते हुए वन्दन करना अथवा हाथ को आयताकार करके 'मैं वंदना करता हूँ' ऐसा कहते हुए वन्दन
करना।
तुलना - दिगम्बर परम्परा में भी वन्दना के बत्तीस दोष स्वीकारे गये हैं। यद्यपि तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो इन दोनों परम्पराओं में इस विषयक नाम, क्रम और स्वरूप को लेकर क्वचित असमानता है। श्रृंग, कर, आश्लिष्ट