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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण ...219 पलट कर वन्दन करना। यहाँ मत्स्य उद्धृत अर्थात ऊँचा उछलना और मत्स्य आवर्त अर्थात शरीर को गोलाकार में परावर्तित करना, फेरना, घुमाना, ऐसा अर्थ है।
9. मनः प्रदुष्ट- वंदनीय आचार्य आदि किसी गुण से हीन हो, तो उस अवगुण का अन्तर्मन में चिन्तन करते हुए अरुचि पूर्वक वन्दन करना अथवा आत्मप्रत्यय और परप्रत्यय से उत्पन्न हुए मनोद्वेष पूर्वक वन्दन करना, मनः प्रदुष्ट दोष है।
गुरु द्वारा शिष्य को साक्षात दिए गए उपालंभ से उत्पन्न हुआ द्वेष आत्मप्रत्यय कहलाता है तथा गुरु द्वारा शिष्य के सम्बन्धी, मित्रादि के समक्ष उसके सन्दर्भ में कटुसत्य कहने से उत्पन्न हुआ द्वेष परप्रत्यय कहलाता है। ____10. वेदिकाबद्ध- वेदिका - हाथ की रचना, बद्ध - युक्त अर्थात दोनों हाथों को घुटनों के ऊपर या घुटनों के बाह्य भाग में या घुटनों के पार्श्व भाग में स्थापित करके अथवा गोद में रखकर या बाएँ घूटने को दोनों हाथों के बीच रखकर या दाएँ घुटने को दोनों हाथों के बीच रखकर वन्दन करना, इस तरह पाँच प्रकार का वेदिकाबद्ध दोष जानना चाहिए। ___11. भजन्त- यह गुरु मेरे अनुकूल है, भविष्य में भी मेरे अनुकूल रहेंगेइस अभिप्राय से वन्दन करना अथवा हे आचार्य प्रवर! हम आपको वन्दन करने के लिए खड़े हैं, इस तरह गुरु को एहसान जताते हुए वन्दन करना। ___12. भय- यदि मैं वंदन नहीं करूंगा तो गुरु मुझे संघ, कुल, गच्छ या क्षेत्र से बाहर कर देंगे, इस भय से वन्दन करना। ____ 13. मैत्री- अमुक आचार्य मेरे मित्र हैं या अमुक आचार्य के साथ मेरी मित्रता होगी, यह सोचकर वन्दन करना।
14. गौरव- सभी साधुजन यह समझें कि 'मैं वन्दनादि सामाचारी में कुशल हूँ' इस प्रकार गर्व से या प्रशंसा पाने के लिए आवर्तादि वन्दन विधि यथावस्थित करना।
15. कारण- ज्ञान, दर्शन व चारित्र के लाभ- इन तीन कारणों को छोड़कर वस्त्र, पात्र आदि की अभिलाषा से गुरु को वन्दन करना।
16. स्तेन- वन्दन करने से मेरी लघुता प्रगट होगी, यदि दूसरे देखेंगे तो कहेंगे कि- 'अहो! ये विद्वान् होते हुए भी वन्दन करते हैं, इससे मेरा अपमान