________________
218...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
3. प्रविद्ध- जैसे-तैसे वन्दन करना अथवा भाडूती वाहन की तरह अधूरा वन्दन करके छोड़ देना। जैसे- किराये की गाड़ी वाले ने किसी व्यापारी के गृह सामान को अन्य नगर से उस व्यापारी के वहाँ लेकर आया
और मालिक से पूछा कि- सामान कहाँ उतारना है? मालिक ने कहा- मैं सामान रखने का उचित स्थान देखकर आता हूँ, तब तक प्रतीक्षा करो। लेकिन किराये की गाड़ी वाला इतनी देर कहाँ रूकने वाला था, वह गाँव के मार्ग पर ही सामान उतारकर आगे प्रस्थित हो गया उसी तरह अधूरा वन्दन छोड़कर भग जाना।
4. परिपिंडित- एक साथ विराजित अनेक आचार्यों को पृथक-पृथक वंदन न करके एक ही वन्दन से सभी को वंदन कर लेना अथवा आवर्त प्रयोग
और तद्योग्य सूत्राक्षरों को यथाविधि न बोलते हुए अव्यक्त सूत्रोच्चार पूर्वक वन्दन करना अथवा परि = ऊपर, पिंडित = एकत्रित अर्थात कुक्षि के ऊपर दोनों हाथ स्थापित कर या टेककर वन्दन करना।
5. टोलगति- टोल अर्थात टिड्डी की तरह आगे-पीछे कूदते हुए वन्दन करना।
6. अंकुश-जैसे हाथी को अंकुश द्वारा यथास्थान ले जाया जा सकता है अथवा बिठाया जा सकता है वैसे ही सोये हुए, खड़े हुए या काम में व्यग्र आचार्य आदि के हाथ को पकड़कर एवं उन्हें जबर्दस्ती बिठाकर वन्दन करना।
आवश्यकटीका के अनुसार दोनों हाथों में अंकुश की तरह रजोहरण पकड़कर वन्दन करना, अंकुश दोष है। किन्हीं मतानुसार अंकुश से पीड़ित हाथी
की तरह सिर को ऊँचा-नीचा करते हुए वन्दन करना अंकुश दोष है। ___7. कच्छपरिंगित- कच्छप - कछुआ, रिंगित – अभिमुख अर्थात कछुए की तरह आगे-पीछे खिसकते हुए वन्दन करना।
8. मत्स्योवृत्त- जिस प्रकार मछली जल में उछाला मारती हुई शीघ्र ऊपर आ जाती है और पुनः अपना शरीर उलटाकर शीघ्र डूब जाती है उसी प्रकार वन्दन काल में खड़े होते और बैठते समय फुदकने की तरह शीघ्र उठना और बैठना अथवा जैसे मछली उछलकर डूबते समय सहसा शरीर को पलट देती है वैसे ही एक आचार्य को वन्दन करके उनके समीप बैठे हुए अन्य आचार्य आदि को वन्दन करने के लिए वहाँ बैठे-बैठे ही मत्स्य की तरह शरीर