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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण... 217
सुयोग्य शिष्य को उपर्युक्त तैंतीस आशातनाओं का वर्जन करना चाहिए। जो शिष्य गुरु की अवज्ञा आदि आशातना नहीं करता है उस पर गुरु की अनायास कृपा होती है और उसके बल से ज्ञान आदि की प्राप्ति सुगम होती है। क्योंकि ज्ञान आदि की प्राप्ति में गुरु हेतुभूत होते हैं। गुरु का अविनय करने से उनकी प्राप्ति नहीं होती। विनय धर्म का मूल है अतः अविनय करने वाला धर्मवृक्ष का उच्छेद करता है। धर्म का मूल सम्यक्त्व भी हैं, गुरु की आशातना करने से सम्यक्त्व विच्छिन्न होता है।
दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति के अनुसार दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनयगुरुमूलक होते हैं। जो गुरु की आशातना करता है वह इन गुणों की आराधना कैसे कर सकता है? अर्थात वह इन गुणों को प्राप्त नहीं कर सकता है इसलिए आशातनाओं का परिहार करना चाहिए। 86 उक्त आशातनाएँ मुख्य रूप से श्रमण के दृष्टिकोण से कही गई हैं, किन्तु गृहस्थ को भी इनमें से तद्योग्य आशातनाओं को टालना चाहिए।
गुरु वन्दना के बत्तीस दोष
जो चारित्र और गुणों से सम्पन्न हैं वे ही आत्माएँ वन्दनीय हैं। जैन परम्परा में गुरुवन्दन की एक निश्चित विधि है । सामान्य रूप से वन्दन करते समय 32 प्रकार के दोष लगने की सम्भावना रहती है। वंदन - अधिकारी को इन दोषों का परिज्ञान होना आवश्यक है, ताकि दोषों से बचा जा सके। प्रवचनसारोद्धार, गुरुवंदनभाष्य आदि में उल्लिखित बत्तीस दोष इस प्रकार हैं- 87
1. अनादृत- उत्सुकता रहित अनादर भाव से वन्दन करना ।
2. स्तब्ध - जाति आदि आठ प्रकार के मद से गर्वित होकर अथवा देह आदि की अकड़ पूर्वक वन्दन करना । प्रवचनसारोद्धार की टीका में द्रव्य और भाव गर्वित दो तरह के बतलाये हैं- (i) वायुजन्य पीड़ादि के कारण शरीर का नहीं झुकना द्रव्य गर्वित है और (ii) अभिमानवश दैहिक अंगों का न झुकना भाव गर्वित है। इसके चार विकल्प इस प्रकार बनते हैं- 1. द्रव्य से गर्वित, भाव से अगर्वित 2. भाव से गर्वित, द्रव्य से अगर्वित 3. द्रव्य से गर्वित, भाव से भी गर्वित 4. द्रव्य से अगर्वित, भाव से भी अगर्वित ।
इनमें चौथा विकल्प सर्वशुद्ध है, दूसरा एवं तीसरा विकल्प सर्वथा अशुद्ध है, प्रथम विकल्प शुद्धाशुद्ध है।