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212...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में के अनुसार नट के हाव-भाव, वेश-भूषा आदि बदलते रहते हैं वैसे ही असंक्लिष्ट मुनि का आचार बदलता रहता है।
5. यथाच्छंद- उत्सूत्र (सिद्धान्त विपरीत) प्ररूपणा करने वाला, सूत्र विरुद्ध आचरण करने वाला, गृहस्थ सम्बन्धी कार्यों में प्रवृत्ति करने वाला, स्वमति कल्पित अपुष्टालम्बन का आश्रय लेकर सुख चाहने वाला, विगय आदि स्वादिष्ट आहार में आसक्त साधु यथाछन्द कहलाता है।
उपर्युक्त पाँचों प्रकार के वेषधारी साधु सामान्य रूप से सभी के लिए अवन्दनीय हैं, किन्तु परिस्थिति विशेष में व्यवहारत: वन्दनीय होते हैं। क्योंकि पार्श्वस्थ आदि मुनियों में चारित्र का सर्वथा अभाव नहीं होता है। यदि ऐसा हो, तो उनके सर्वत: और देशत: ये दो भेद करना व्यर्थ होगा। वस्तुत: वे दोष युक्त चारित्री होते हैं। गुरु सम्बन्धी तैतीस आशातनाएँ
सम्यक्त्व, ज्ञान आदि की उपलब्धि में बाधा डालने वाली अथवा न्यूनता उत्पन्न करने वाली अवज्ञापूर्ण प्रवृत्ति आशातना कहलाती है। दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति के अनुसार आशातना के दो अर्थ हैं- आशातना और आसादना अर्थात मिथ्या प्रतिपत्ति और लाभ।78 ___ (i) मिथ्याप्रतिपत्ति का अर्थ है सम्यक स्वीकार नहीं करना। जो अर्थ जैसे सद्भूत होते हैं, उनको अयथार्थ रूप में स्वीकार करना आशातना है। यहाँ विवेच्य तैंतीस आशातनाएँ इसी अर्थ की सूचक हैं।79
(ii) लाभ आसादना के छह निक्षेप हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। इनमें से प्रत्येक के इष्ट और अनिष्ट ऐसे दो-दो भेद हैं।80 भिक्ष आगमकोश में प्रतिपादित इन भेद-प्रभेदों का सामान्य वर्णन इस प्रकार है1. द्रव्य आसादना- चोरों द्वारा साधुओं की चुराई गई उपधि का पुनः लाभ
होना अनिष्ट द्रव्य आसादना है तथा एषणा शुद्धि के द्वारा उपधि की प्राप्ति होना इष्ट द्रव्य आसादना है। इसी तरह ग्लानादि साधुओं के लिए अनेषणीय की प्राप्ति होना अनिष्ट द्रव्य आसादना तथा एषणीय की
प्राप्ति होना इष्ट द्रव्य आसादना है। 2. क्षेत्र आसादना- प्रवास के योग्य-अयोग्य क्षेत्र की प्राप्ति होना इष्ट
अनिष्ट क्षेत्र आसादना है।