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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण ...211
समझकर भिक्षादि से उसका सत्कार करना। • कुल आजीवक- गृहस्थ के यहाँ 'मैं भी तुम्हारे कुल का हूँ, ऐसा कहकर
भिक्षा प्राप्त करना। • शिल्प आजीवक- शिल्प निष्णात गृहस्थ के यहाँ 'मझे भी यह शिल्प
आता है या मैंने भी अमुक आचार्य से यह शिल्प सीखा है' ऐसा कहकर भिक्षा प्राप्त करना। • कर्म आजीवक- यह कार्य मुझे भी आता है, ऐसा कहकर भिक्षा प्राप्त
करना। • गण आजीवक- “मैं भी मल्लक गण का हूँ' आदि कथनों से भिक्षादि
प्राप्त करना, आजीवक है।
• कल्ककुरूका- इस शब्द के दो अर्थ हैं- 1. कपटवृत्ति से दूसरों को ठगना 2. कल्क- शरीर के कुछ भागों में या पूरे शरीर में लोद्र वगेरे का उबटन लगाना अथवा त्वचा सम्बन्धी रोगों में चमड़ी पर क्षारादि लगाना। कुरूकाउबटनादि लगाने के पश्चात हाथ-पैर आदि धोना या सम्पूर्ण स्नान करना, कल्ककुरूका है।
• लक्षण- स्त्री-पुरुष के शारीरिक शुभाशुभ लक्षण बताना।
• विद्या- जिसकी अधिष्ठायिका देवी होती है और जिसे साधना द्वारा सिद्ध किया जाता है, उस विद्या प्रयोग से शुभाशुभ करना, विद्या कर्म है।
• मंत्र- जिसका अधिष्ठाता देवता होता है तथा जिसे सिद्ध नहीं करना पड़ता, उस मंत्र प्रयोग से शुभाशुभ करना, मंत्र कर्म है। कुशील साधु पूर्वोक्त मंत्रादि का प्रयोग करने वाला होने से अवन्दनीय है।
4. संसक्त- मूलगुणों एवं उत्तरगुणों से सम्बन्धित दोषों का सेवन करने वाला मुनि संसक्त कहलाता है। संसक्त साधु दो तरह के होते हैं- संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट।
(i) संक्लिष्ट संसक्त- प्राणातिपात आदि पाँच आश्रवों में प्रवृत्ति करने वाला, ऋद्धि आदि तीन गारव में आसक्त, स्त्री का प्रतिसेवन करने वाला साधु संक्लिष्ट संसक्त है।
__(ii) असंक्लिष्ट संसक्त- संगति के अनुसार आचरण करने वाला, जैसेपार्श्वस्थ आदि के साथ तद्रूप आचरण करने वाला और संयमनिष्ठ मुनियों के साथ तदनुकूल वर्तन करने वाला असंक्लिष्ट संसक्त कहा जाता है। जैसे- कथा