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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण...199
• इस आलापक के द्वारा वंदन करने की इच्छा का निवेदन किया जाता है, इसलिए यह इच्छा निवेदनस्थान कहलाता है।
गुरु-'छंदेणं' - तुम इच्छानुसार प्रवृत्ति करो, ऐसा कहे। वृत्तिकार के अनुसार गुरु को वंदन करवाना हो तो 'छंदेणं' शब्द कहें। यदि कार्यादि में व्यस्त हो या क्षोभादि से युक्त हो तो 'त्रिविधेन'- मन, वचन, काया से वन्दन करना निषिद्ध है, ऐसा कहें। तब शिष्य संक्षेप में वन्दन करें। 2. अनुज्ञापन स्थान ___शिष्य- 'अणुजाणह मे मिउग्गहं'- मुझे आपके समीप आने की अनुज्ञा दीजिए, इस तरह अवग्रह में प्रवेश करने की अनुमति मांगे।
गुरु- 'अणुजाणामि' - अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा है, ऐसा कहे। 3. अव्याबाध पृच्छास्थान
शिष्य- 'अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कंतो'- अल्प ग्लानि वाले (सदैव प्रसन्न चित्त वाले) आपका दिवस सुखपूर्वक व्यतीत हुआ होगा, ऐसा पूछे।
गुरु- 'तहत्ति' - मैं वैसा ही हूँ, मेरा दिवस सुखपूर्वक सम्पन्न हुआ है। 4. यात्रा पृच्छास्थान
शिष्य- 'जत्ता भे' आपकी संयम यात्रा सुखपूर्वक चल रही है?
गुरु- 'तुम्भंपि वट्टए' – हाँ! मेरी तो सुखपूर्वक चल रही है, पर तुम्हारी भी सुखपूर्वक चल रही है न? 5. यापना पृच्छास्थान
शिष्य- 'जवणि ज्जं च भे'- हे भगवन्! आपकी इन्द्रियाँ और कषाय नियन्त्रित है न? आपके आत्मस्वरूप का उपघात तो नहीं कर रही है न?
गुरु- ‘एवं' ऐसा ही है। 6. अपराध क्षमापनास्थान
शिष्य- 'खामेमि खमासमणो! देवसिअं वइक्कमं'- हे क्षमाश्रमण! आज दिन के अन्तराल में मेरे द्वारा आपका जो कुछ अपराध हुआ हो, उसकी क्षमायाचना करता हूँ।
गुरु- 'अहमवि खामेमि तुम' – मैं भी अज्ञानवश हुए दोषों के लिए