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198...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में भी शिष्य के विशेष शीर्ष नमन की मुख्यता है, यही दोनों में भेद है।
गुप्ति- मन, वचन और काया को बाह्य व्यापार से निवृत्त रखते हुए वन्दन करना त्रिगुप्त वन्दन है। ___ मन की एकाग्रता पूर्वक वंदन करना मनगुप्ति है।
सूत्राक्षरों का शुद्ध एवं अस्खलित उच्चारण करते हुए वन्दन करना वचनगुप्ति है।
बत्तीस दोष रहित वन्दन करना कायगुप्ति है।
प्रवेश- गुरु को वन्दन करने के लिए उनके अवग्रह में अनुमति पूर्वक प्रवेश करना, प्रवेश आवश्यक है। वन्दन करते समय दो बार प्रवेश होता हैप्रथम वन्दन के समय 'निसीहिआए' या 'अणुजाणह मे मिउग्गहं' पद बोलते हुए गुरु के अवग्रह में प्रवेश करना पहला प्रवेश है। इसी प्रकार दूसरे वन्दन के समय प्रवेश करना, दूसरा प्रवेश है।
निष्क्रमण- गुरु के अवग्रह में से 'आवस्सियाए' पद बोलते हुए बाहर निकलना निष्क्रमण आवश्यक है। यह द्वादशावर्त वन्दन में एक ही बार होता है, क्योंकि प्रथम बार के वन्दन में 'आवस्सियाए' बोलते हुए अवग्रह से बाहर निकलना होता है। परन्तु दुबारा वन्दन में आवर्त करने के पश्चात अवग्रह में खड़े रहकर ही शेष सूत्रपाठ बोलना होता है, इसी कारण दूसरी बार के वन्दन में 'आवस्सियाए' पद नहीं बोला जाता है, ऐसा विधिमार्ग है।
वन्दन इच्छुक साधकों को इन पच्चीस आवश्यक स्थानों का यथावत अनुसरण करना चाहिए।51
षट्स्थान- कृतिकर्म करने वाला शिष्य द्वादशावर्त्तवंदन सूत्र के द्वारा गुरु से छः प्रकार के प्रश्न करता है, तब गुरु प्रत्युत्तर देते हैं। इस प्रकार शिष्य और गुरु दोनों के छह छह स्थान होते हैं। शिष्य के आलापक (वचनस्थान) वंदनसूत्र में ही समाविष्ट हैं जबकि गुरु के वचन गुरुवंदनभाष्य आदि में इस प्रकार प्राप्त होते हैं1. इच्छा निवेदनस्थान
शिष्य- 'इच्छामि खमासमणो! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए'
हे क्षमाश्रमण! मैं आपको निर्विकार और निष्पाप काया से वंदन करने की इच्छा करता हूँ, ऐसी आज्ञा मांगे।