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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण... 177
पूजा कर्म कहलाता है। यह कर्म दो प्रकार का प्रज्ञप्त है
(i) द्रव्य-पूजाकर्म - उपयोग शून्य सम्यक्त्वी एवं निह्नव आदि का त्रियोग रूप प्रशस्त व्यापार द्रव्य - पूजाकर्म है।
(ii) भाव-पूजाकर्म- उपयोग युक्त सम्यक्त्वी का प्रशस्त व्यापार भावपूजाकर्म है।20
पूजाकर्म पर दो राजसेवकों का दृष्टान्त है। एक राजा के दो सेवकों में गाँव की सीमा को लेकर परस्पर विवाद हुआ। उसके न्याय हेतु दोनों ने राजदरबार में जाने का विचार किया। वे दोनों जा रहे थे कि उन्हें मार्ग में मुनि के दर्शन हो गए। एक ने विचार किया कि मुनि के दर्शन - वन्दन से मेरा काम अवश्य सिद्ध होगा और वह मुनि को प्रदक्षिणा पूर्वक वन्दन करके राज दरबार में पहुँचा। दूसरे सेवक ने उसके देखा-देखी मुनि को वन्दना की। राजसभा में दोनों सेवकों के पक्षों पर सम्यक् विचार हुआ। अन्ततः भाव - वन्दन करने वाले सेवक के पक्ष में निर्णय हुआ और दूसरे सेवक की पराजय हुई |
यहाँ एक सेवक का वन्दन भाव - पूजाकर्म और दूसरे का अनुकरण रूप होने से द्रव्य-पूजाकर्म है। 21
5. विनयकर्म - गुरु के अनुकूल प्रवृत्ति करना विनयकर्म है। मूलाचार के अनुसार जिसके द्वारा अशुभ कर्मों को संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि में परिवर्तित कर विनष्ट कर दिया जाता हो वह विनयकर्म है। इसके दो प्रकार हैं(i) द्रव्य - विनयकर्म - उपयोग शून्य सम्यक्त्वी एवं निह्नव आदि की गुरु के अनुकूल प्रवृत्ति होना द्रव्य - विनयकर्म है।
(ii) भाव-विनयकर्म - उपयोगयुक्त सम्यक्त्वी की गुरु के अनुकूल प्रवृत्ति होना भाव - विनयकर्म है।
विनयकर्म पर पालक और शाम्ब का उदाहरण कहा गया है- कृष्ण महाराजा के पालक और शाम्बकुमार आदि अनेक पुत्र थे। एक बार द्वारिका नगरी में भगवान नेमिनाथ का आगमन हुआ । कृष्ण ने अपने पुत्रों से कहा कि ‘कल प्रातः जो प्रभु को सबसे पहले वन्दन करेगा उसे मैं अपना अश्वरत्न दूंगा।' यह सुनकर कृष्णपुत्र शाम्बकुमार ने प्रातः जल्दी उठकर अपनी शय्या पर बैठेबैठे ही भगवान को वन्दन कर लिया, किन्तु पालक राजकुमार अश्वरत्न को पाने की इच्छा से भगवान के पास वन्दन करने गया। जब कृष्ण जी नेमिनाथ प्रभु