SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 176...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में (i) द्रव्य-कृतिकर्म- उपयोग शून्य सम्यक्त्वी की तथा निह्नवादि (जिन मत के विपरीत प्ररूपणा करने वाले) की नमन क्रिया द्रव्य कृतिकर्म है। (ii) भाव-कृतिकर्म- उपयोगयुक्त सम्यक्त्वी की नमन क्रिया भाव कृतिकर्म है।18 इस वन्दन कर्म पर कृष्ण और वीरक शालवी का उदाहरण प्रसिद्ध हैद्वारिका नगरी में कृष्ण महाराजा के मुखदर्शन करने के पश्चात ही भोजन करने वाला वीरक नामक सेवक रहता था। वर्षावास काल में कृष्ण जी राजभवन से बाहर नहीं निकलते थे, अत: वीरक शालापति दर्शन के अभाव में भूखा रहने से कृश हो गया। चातुर्मास पूर्ण होने के बाद कृष्णजी ने वीरक को दुर्बलता का कारण पूछा, तब उसने अपनी बात बताई। यह सुनकर कृष्ण ने उसे किसी की अनुमति लिये बिना ही महल में आने की आज्ञा प्रदान कर दी। इधर कृष्ण की विवाह योग्य पुत्रियों को कृष्ण के पास भेजा जाता था। वे सभी से एक ही बात पूछते कि 'तुम्हें रानी बनना है दासी?' जो राजकुमारी कहती कि 'मुझे रानी बनना है तो उसे भगवान नेमिनाथ के चरणों में दीक्षित कर देते। एकदा माता से सीख पाई हुई एक राजकुमारी ने दासी बनने की भावना अभिव्यक्त की। यह सुनकर उसे शिक्षा देने हेतु कृष्ण ने उसकी शादी सालवी के साथ कर दी और वीरा को समझा दिया कि राजकुमारी से घर का सभी काम करवाना। वीरा ने वैसा ही किया। राजकुमारी अल्प दिनों में ही परेशान हो गई और पिता श्रीकृष्ण से रानी बनने का निवेदन कर दीक्षित बन गई। ___ एक बार नेमिनाथ परमात्मा पुन: द्वारिका से पधारे। कृष्णजी ने भावपूर्वक अठारह हजार मुनियों को वन्दन किया। वीरक ने भी लज्जावश उनके साथ सभी को वन्दन किया। ___ यहाँ कृष्णजी का द्वादशावर्त वन्दन भाव-कृतिकर्म है, क्योंकि इस वन्दन के परिणामस्वरूप उनके चार नारकी के बन्धन टूटे और क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई जबकि वीरक का वन्दन द्रव्य कृतिकर्म है, उसे किसी तरह का लाभ प्राप्त नहीं हुआ।19 4. पूजाकर्म- मन, वचन, काया का प्रशस्त व्यापार पूजा कर्म है। आचार्य वट्टकेर के अनुसार जिन श्लोकों आदि के द्वारा अरिहंत परमात्मा आदि पूजे जाते हैं- अर्चे जाते हैं, उन्हें पुष्पमाला, चन्दन आदि चढ़ाये जाते हैं, वह
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy