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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण ...175 (ii) भाव-चितिकर्म- उपयोग युक्त सम्यक्त्वी के द्वारा रजोहरण आदि उपकरण पूर्वक वन्दना आदि शुभ क्रिया करना, भाव कर्म है।16
इस विषय में क्षुल्लक का दृष्टान्त है। इस भूतल पर गुणसुन्दरसूरि नाम के आचार्य थे। उन्होंने अपना अन्तिम समय निकट जानकर एक सुयोग्य क्षुल्लक (लघुवयस्क) मुनि को संघ की सहमतिपूर्वक आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। पूर्वाचार्य कालधर्म को प्राप्त हो गए। इधर सभी गच्छवासी मुनि क्षुल्लकाचार्य की अनुज्ञा में रहने लगे। एकदा मोहनीय कर्म के प्रबल उदय से क्षुल्लकाचार्य को चारित्र त्याग का भाव जागृत हुआ। वे देह चिंता के बहाने मुनियों के साथ जंगल की ओर गये। वही सहवर्ती मुनियों को एक वृक्ष की ओट से खड़ा करके स्वयं बहुत दूर चल दिये। वे चलते हुए पुष्प-फलादि से समृद्ध एक वनखण्ड में पहुँचे। जहाँ उन्होंने देखा कि कुछ लोग बकुलादि उत्तम वृक्षों को छोड़कर नीरस शमीवृक्ष की पूजा कर रहे हैं। उन्हें आश्चर्य हुआ, किन्तु सोचने पर यह स्पष्ट भी हो गया कि शमीवृक्ष की पूजा के पीछे इसके चारों ओर घिरी हुई पीठिका ही कारण है।
इस दृश्य ने उनके मन को परिवर्तित कर दिया। वे पुनः संभले और अपने जीवन के बारे में सोचने लगे कि मैं शमीवृक्ष के समान निर्गुण हूँ, गच्छ में तिलक, बकुल आदि उत्तम वृक्षों के समान अनेक राजकुमार मुनि हैं, मुझसे भी अधिक ज्ञानी, गुणी एवं संयमी मुनि गच्छ में विद्यमान हैं फिर भी गुरु ने मुझे आचार्य पद पर स्थित किया। गच्छ के सभी मुनि मेरी पूजा करते हैं इसका मुख्य कारण गुरु प्रदत्त यह पद और रजोहरणादि उपकरण रूप चितिकर्म है। इस प्रकार अपने दुर्भाव पर घोर पश्चात्ताप करते हुए वसति की ओर लौट आए। गीतार्थ मुनियों के समक्ष अपने दुर्ध्यान की अन्त:करण पूर्वक आलोचना कर शुद्ध बने।
यहाँ क्षुल्लकाचार्य के लिए चारित्र त्याग की इच्छा काल में रजोहरणादि उपधि का संचय होना द्रव्य चितिकर्म है और प्रायश्चित्त के समय इन्हीं रजोहरण आदि उपकरणों का संचय भाव चितिकर्म है।17
3. कृतिकर्म- वन्दन क्रिया या नमन क्रिया करना कृतिकर्म है। दिगम्बर परम्परावर्ती मूलाचार के अनुसार जिस अक्षर समूह से, जिस परिणाम से अथवा जिस क्रिया से आठ प्रकार के कर्मों का क्षय किया जाता है वह कृतिकर्म है अथवा पापों के नाश करने का उपाय कृतिकर्म है। इसके दो भेद हैं