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174... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
विशुद्धि बढ़ने से चारों मुनियों को केवलज्ञान हो गया। दूसरे दिन सूर्योदय से ही शीतलाचार्य उनके आगमन की प्रतीक्षा करने लगे, किन्तु एक प्रहर दिन बीतने के बाद भी जब वे नहीं आये तो बेसब्र होकर वे स्वयं उनसे मिलने के लिए गए। चारों केवली मुनि आचार्य को आते हुए देखकर भी अपने स्थान से उठकर खड़े नहीं हुए। शीतलाचार्य के समीप आने पर भी वे चारों यथावत आसीन रहे । इस तरह का व्यवहार देखकर आचार्य से रहा नहीं गया और वे बोले - “क्या तुम्हें वन्दना भी मैं ही करूंगा ?” मुनियों ने जवाब दिया- 'सुखं भवतु' । अज्ञानता वश आचार्य ने सोचा - ये मुनि कितने अविनीत हैं ? फिर भी क्रोधावेश में वन्दन करने लगे। तब केवलज्ञानी मुनियों ने कहा- आवेश वश होने के कारण यह तुम्हारा द्रव्य वन्दन है, अतः भाव वन्दन करिये। मुनियों की यह बात सुनकर शीतलाचार्य आश्चर्य चकित हो उठे। उन्होंने पूछा कि तुम लोगों ने मेरे भावों को कैसे जान लिया ? मुनियों ने सही हकीकत कही । तब आचार्य को घोर पश्चात्ताप हुआ कि मैंने केवलज्ञानियों की आशातना कर दी । तदनन्तर भावधारा इतनी पवित्र एवं प्रकर्ष हो उठी कि केवलज्ञानियों को भाव वन्दन करते-करते वे स्वयं केवलज्ञानी हो गए। सारांश है कि एक कायिकी चेष्टा द्रव्य वंदना बन्धन का हेतु बनती है वहीं एक कायिक चेष्टा भाव वंदना के रूप में मोक्ष सहायक होती है। 14
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2. चितिकर्म - टीकाकार के अभिमतानुसार कुशल कर्म का संचय करना अथवा कारण में कार्य का उपचार करके रजोहरण आदि उपधि का संग्रह करना चितिकर्म है अथवा रजोहरण आदि शुभ उपकरणों द्वारा वन्दनादि शुभ- क्रिया करना, जिससे शुभ कर्म का संचय हो, वह चितिकर्म कहलाता है। 15
मूलाचार के अनुसार जिस अक्षर समूह से या परिणाम से अथवा क्रिया से तीर्थंकरत्व आदि पुण्य कर्म का चयन होता है - सम्यक प्रकार से अपने साथ एकीभाव होता है या संचय होता है, वह पुण्य संचय का कारणभूत कर्म, चितिकर्म है। यह कर्म दो प्रकार का है -
(i) द्रव्य - चितिकर्म - उपयोग शून्य सम्यक्त्वी जीव के द्वारा रजोहरण पूर्वक वन्दनादि शुभ क्रिया करना तथा तापस आदि के योग्य उपकरणों का संचय करके तापस योग्य क्रिया करना, द्रव्य कर्म है।