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172...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में से वन्दन शब्द उत्पन्न है। आवश्यक टीका में व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ करते हुए कहा गया है कि “वन्द्यते-स्तूयतेऽनेन प्रशस्तमनोवाक्काय-व्यापारजालेनेति वन्दनम्" मन-वचन और काया का प्रशस्त व्यापार, जिसके द्वारा (उच्च स्थानीय को) वन्दन किया जाता है, स्तुति की जाती है वह वन्दन कहलाता है।
आवश्यकचूर्णि में काया के प्रशस्त व्यापार को अभिवादन और वचन के प्रशस्त व्यापार को स्तुति कहा गया है। इन दोनों का संयुक्त रूप वन्दन है।2
प्रवचनसारोद्धार की टीका में शरीर, वचन और मन के विधियुत प्रणिधान को अथवा त्रियोग के सम्यक व्यापार को वन्दन कहा है। धर्मसंग्रह के अनुसार मस्तक द्वारा अभिवादन करना अथवा सम्मान पूर्वक नमन करना वन्दन है।
तत्त्वत: साधनाशील सत्पुरुषों के प्रति मन के द्वारा प्रशस्त चिन्तन करना, वचन के द्वारा स्तुति (गुणगान) करना और काया के द्वारा बहुमान का भाव प्रकट करना वन्दन कहलाता है। वन्दन की शास्त्र सम्मत परिभाषाएँ
सद्गुणी के प्रति मानसिक, वाचिक एवं कायिक रूप से सर्वात्मना समर्पित हो जाना परमार्थ वन्दन है तथा औपचारिक रूप से बहुमान आदि प्रदर्शित करना व्यवहार वन्दन है। जैन साहित्य में वन्दन की अनेक व्याख्याएँ उपलब्ध हैं। भगवती आराधना टीका में इसका निरूपण करते हुए कहा गया है कि वन्दन करने योग्य गुरुजन आदि के गुणों का स्मरण करना मनो वन्दना है, वचनों के द्वारा उनके गुणों का महत्त्व प्रकट करना वचन वन्दना है और नमस्कार, आवर्त आदि करना काय वन्दना है। प्रस्तुत टीका में रत्नत्रयधारक यति, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, वृद्ध साधु आदि के उत्कृष्ट गुणों का अवलोकन कर श्रद्धायुत भाव से विनय रूप प्रवृत्ति करने को भी वन्दन कहा है।
कषाय प्राभृत के अनुसार एक तीर्थंकर को नमस्कार करना वन्दना है।' धवलाटीका के निर्देशानुसार ऋषभ, अजित आदि चौबीस तीर्थंकर, भरत चक्रवर्ती आदि केवली, आचार्य एवं चैत्यालय आदि के गुणों का स्मरण करना वन्दना है। इसी के साथ "हे भगवन्! आप अष्ट कर्मों को नष्ट करने वाले, केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को देखने वाले, धर्मोन्मुख शिष्ट जनों को अभयदान देने वाले, शिष्ट परिपालक और दुष्ट निग्रहकारी देव हैं' ऐसी प्रशंसा करना नाम वन्दना है।