SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय-4 वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण षडावश्यक में तीसरा वन्दन आवश्यक है। पूज्य पुरुषों को वंदन करने की परम्परा आचार जगत में सदा काल से जीवन्त रही है। उनमें भी देव और गुरु को विधिपूर्वक वन्दन किया जाता है क्योंकि ये पूज्यों में भी पूज्य हैं और इन्हें वंदन करने से श्रद्धा गुण विकसित होता है। जिस विधिपूर्वक अरिहंत देव को वन्दन किया जाता है उसे चैत्यवन्दन कहते हैं तथा जिस विधि से पंचमहाव्रतधारी गुरु को वन्दन किया जाता है उसे गुरुवन्दन कहते हैं। वस्तुत: मोक्षमार्ग में तीर्थंकर देव को साधना के आदर्श के रूप में एवं गुरु को साधना मार्ग के पथ प्रदर्शक के रूप में स्वीकार किया गया है अत: चतुर्विंशतिस्तव नामक द्वितीय आवश्यक के द्वारा तीर्थंकर परमात्मा की एवं वन्दन नामक तृतीय आवश्यक के द्वारा सद्गुरु की उपासना की जाती है। तीर्थंकर कालजयी एवं केवलज्ञान रूपी चरम लक्ष्य को समुपलब्ध उत्कृष्ट पुरुष होते हैं इसीलिए गुरु से पहले देव का स्थान होता है। __ वन्दन आवश्यक की शुद्धि के लिए यह जानना परम आवश्यक है कि वन्दनीय कौन हैं, वन्दन कब करना चाहिए, अवन्दनीय को वन्दन करने पर कौनसे दोष लगते हैं, वन्दन करते समय किन दोषों का परिहार करना चाहिए, वन्दन के कितने स्थान हैं, वन्दन कितने प्रकार से किया जा सकता है, वन्दन कितनी बार करना चाहिए आदि? वन्दन अधिकारी के लिए उपर्युक्त बिन्दुओं का परिज्ञान होना इसलिए जरूरी है क्योंकि इनकी सम्यक समझपूर्वक ही साधक इस आवश्यक का यथार्थ फल प्राप्त कर सकता है। वन्दन शब्द का अर्थ विमर्श वन्दन का सामान्य अर्थ है- अभिवादन, स्तुति, नमन आदि। जिनशासन में विनयपूर्वक नमन करने को वन्दन कहा गया है। अभिवादन और स्तुति के अर्थ में प्रयुक्त ‘वद्' धातु तथा करण एवं अधिकरण के योग में 'ल्युट' प्रत्यय जुड़कर वन्दन शब्द निष्पन्न हुआ है। इस प्रकार वद् + ल्युट् + नुम् के संयोग
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy