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160...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
___ अन्तिम सातवीं गाथा में तीर्थंकर भगवान को क्रमश: चन्द्र, सूर्य और महासमुद्र से अधिक निर्मल, प्रकाशक एवं गंभीर बतलाया गया है तथा उन्हें सर्वोत्तम रूप में स्वीकार करते हुए उनसे अन्तिम लक्ष्य सिद्धिपद की कामना की गई है। इस गाथा में प्रयुक्त 'अपि' शब्द महाविदेह क्षेत्र में विचरण करने वाले तीर्थंकरों (विहरमानों) को समाहित करता है। ___सार रूप में कहा जाए तो इस लोगस्ससूत्र में परमोच्च शिखर पर पहुँचे हए चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति, इसके सिवाय बीस विहरमान एवं सिद्ध
आत्माओं को वन्दन करते हुए उनके अवलम्बन द्वारा स्वयं प्रेरणा प्राप्त कर निर्वाण पद प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त की गई है।
प्रस्तुत सूत्र विषयक समग्र एवं विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रबोधटीका भा.-1 का अध्ययन करने योग्य हैं। इसमें द्वितीय आवश्यक रूप लोगस्ससूत्र के कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को प्रश्न के रूप में उपस्थित कर उसका सटीक समाधान भी दिया गया है। • जैसे- लोगस्ससूत्र की प्रथम गाथा में 'लोगस्स उज्जोअगरे'- ये दोनों पद किस प्रयोजन से है?
• तीर्थंकर परमात्मा जब भी विचरण-विहार करते हैं तब उनके आगे धर्मचक्र चलता है, उसकी विशेषता क्या है?
• अरिहंत देवों को सकल विश्व के प्रकाशक कहने के पश्चात 'धर्म तीर्थंकर' का विशेषण किस प्रयोजन से दिया जाता है?
• अरिहंत विशेषण का अभिप्राय क्या है?
• प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालखण्ड में चौबीस तीर्थंकर ही क्यों होते हैं?
• चतुर्विंशतिस्तव में तीर्थंकर पुरुषों का ही गुणोत्कीर्तन क्यों किया गया है? __ • चतुर्विंशतिस्तव का फलश्रुति क्या है? चतुर्विंशतिस्तव सम्बन्धी साहित्य
जैन संस्कृति श्रुतधर आचार्यों एवं प्रज्ञावान् मुनिपुंगवों से सदैव पूज्य रही हैं क्योंकि उनके द्वारा रचे गये अभूतपूर्व ग्रन्थों के कारण ही इसकी अस्मिता सुरक्षित है। एक-एक आचार्य ने नाना विषयों पर अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया है। आचार्य हरिभद्रसूरि जैसे मुनिप्रवरों ने तो 1444 ग्रन्थों की रचना कर इसे अमर ही कर दिया है।