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________________ चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन ...159 विस्तृत जानकारी हेतु प्रबोध टीका देखें। इस गाथा के द्वितीय चरण में तीर्थंकर भगवान से आरोग्यादि प्रदान करने की याचना की गई है। तब प्रश्न होता है कि तीर्थंकर भगवान में उपर्युक्त वस्तुओं को देने का सामर्थ्य है? ग्रन्थकारों की दृष्टि से इसका भिन्न-भिन्न समाधान प्राप्त होता है। आवश्यक टीकाकार कहते हैं कि तीर्थंकर में उक्त वस्तुएँ देने का सामर्थ्य नहीं है किन्तु यह तो मात्र भक्ति से प्रेरित होकर कहा जाता है। यह असत्यमृषा नाम की भाषा का एक प्रकार है। परमार्थ से देखा जाये तो तीर्थंकर पुरुषों के प्रति भक्ति होने से स्वयमेव उपर्युक्त वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है। इसी कारण कहा जाता है कि आप मुझे दें।57 ललित विस्तरा में कहा गया है कि वीतराग परमात्मा रागादि दोषों से रहित होने के कारण आरोग्यादि प्रदान नहीं करते हैं। फिर भी इस प्रकार के वाक्य प्रयोग से प्रवचन की आराधना होती है और उस आराधना के द्वारा सन्मार्गवर्ती महासत्त्वशाली जीव को तीर्थंकर भगवान की सत्ता बल से (वस्तु स्वभाव के सामर्थ्य से) आरोग्यादि की प्राप्ति होती है।58 चैत्यवंदन महाभाष्यकार ने कहा है कि प्रार्थना वचन असत्यमृषा नामक भक्ति से उत्प्रेरित होकर बोला जाता है। यथार्थत: राग और द्वेष से रहित वीतरागदेव समाधि और बोधि प्रदान नहीं करते हैं। किन्तु वीतराग परमात्मा की भक्ति करने से जीव आरोग्य, बोधिलाभ और समाधिमरण को प्राप्त करता है।59 ____ योगशास्त्र विवरण में उपर्युक्त पाठ का ही अनुसरण किया गया है। धर्मसंग्रहणी टीका में लिखा गया है कि आरूग्गबोहिलाभं- यह वाक्य निष्फल नहीं है। आरोग्य आदि वस्तुएँ तत्वत: तीर्थंकर भगवान के द्वारा ही दी जाती है क्योंकि वे ही तथाविध विशुद्ध अध्यवसाय के हेतु हैं।60 सारांश यह है कि तीर्थंकर भगवान राग-द्वेष से रहित होने के कारण आरोग्यादि प्रदान नहीं करते हैं, लेकिन उनकी स्तुति भक्ति करने से उपर्युक्त अभिलाषा की सहज ही पूर्ति हो जाती है। जैसे अंजन नहीं चाहता कि मैं किसी के नेत्र ज्योति को बढ़ाऊँ तथापि उसके उपयोग से नेत्र की ज्योति बढ़ती है ठीक उसी प्रकार निष्काम, निस्पृह, वीतराग परमात्मा भले ही किसी को लाभ पहुँचाना न चाहें, किन्तु उनके गुणानुवाद से अवश्य ही लाभ प्राप्त होता है।
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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